संदेश

खिड़की से चाँद

बर्थ पर लेटे खिड़की से झाँका तो काले पेड़ों की पैनी उंगलियाँ चाँद को चीर रही थीं. मैंने देखा खून की कुछ बूँदें उभर आईं थीं उसके गालों पर और माथे पर एक पुराना दाग फिर से खिल उठा था. सोचा, उठूं उन नाखूनों को उखाड़ दूँ, पर रेल के पहियों की धुन ने मुझे पाश में कस सपनों की चार दीवारी में कैद रख छोड़ा.

पेड़ बनना

धीरे धीरे उसकी खाल पिघल कर फिर से जम गई. अब कुर्सी के हत्थे भी उसके हाथ का एक हिस्सा थे. हाथ हिला पाना अब मुमकिन नहीं रहा था बिना अपनी खाल खुद ही खींचे. और फिर क्यों कोई उठे, चले, लड़े, काटे वे फोड़े दिखाए जो लगातार बैठे रहने से पीठ पर उभर आए हैं? क्यों छिलने दे खाल जो चिपक गई है कुर्सी के चिकने चमड़े से? वृक्ष रह जाएगा बस एक अपने आसमान की तलाश में वहीँ पसरा उँगलियाँ तानता, फैलाता पत्ते झड़ता, अपने काँटों से चाँद को लहू-लुहान करता अपनी ही रगड़ से हवाओं में झूमते हुए जलता. जलता हुआ एक वृक्ष धुआं उगलता लपटें वहां भेजता जहाँ पहुँच न पाती उसकी उंगलियाँ.

तीन बजे

बालकनी में बैठा मैं पढ़ रहा था सिल्विया प्लाथ। इक्का दुक्का और घरों में जल रही थी लाइटें, कोई जगा हो शायद। पर कोई आहट नहीं।

झील

दूर किसी कोने में सूरज के पिघलने के बाद कुछ तारे आ जाते थे मेरे हिस्से के आकाश में. मैं बिस्तर पर पड़ा उन्हें देखता रहता और वे खुद में डूबे टिमटिमाते रहते. पुराने प्रेमियों-सा रिश्ता था हमारा बस साथ होने का एक एहसास. फिर खींच लिया ज़िन्दगी ने मुझे खिड़की से दूर और धीरे धीरे पा ही ली हमने अंधेरों पर विजय. आज, थककर, फिर उसी बिस्तर पर लेटा प्रकाशमय है आसमान हमारे उजालों का ऊंचा प्रतिबिम्ब और मेरे हिस्से में बैठा है चाँद बिल्ली कि तरह मुस्कुराता. ना अँधेरा है, ना तारे, दूर काले वृक्ष हैं काली झील से पानी पीते, उजालों में कैद. 

फलस्वरूप

राह चलते लोग ऐसे देखते हैं इन जले अवशेषों को जैसे उनकी यादें जुडी हों इस खंडहर से। चलते चलते ठिठक जाते हैं मुड़ मुड़ कर देखते हैं कुछ एक तो कैमरे भी निकाल लेते हैं, पर मुझे निकलता देख नज़रें चुरा, चल पड़ते हैं बिना एक मुस्कान तक मेरी ओर फैंके।

विजया ऐसी छानिए

काले आकाश में मकड़ी के जाल सी फैली चांदनी कुछ ऐसी लग रही थी जैसे दरारें उभर आईं हों दो दुनियाओं के बीच. धीरे धीरे विजया छन रही थी उस दुनिया से इस दुनिया में. सफ़ेद पानी सी हवा बह रही थी कागज़ के कुछ टुकडे थे भँवरों में कैद. जाने किसके इंतज़ार में गोल गोल घूम रहे थे. दवाइयों के पर्चे थे, बियर के कैन और सिगरेट के बट भी. उसने पूछा, मैं बहुत दर्द तो नहीं दे रही तुम्हें, आँखों के पीछे एक गर्माहट-सी उठीं फ़िल्टर तक पहुँच चुकी सिगरेट का एक गहरा कश खींचा और होंठ हलके-से जल उठे जीभ के छाले भी तमतमा उठे. रोक ही लिया सबने मिलकर आँसुओं को. (कभी आखों को निचोड़ो तो एक बूँद भी नहीं मिलती, कभी गला न भर आए यह डर सताता हैं.) नहीं, आज नहीं, अब नहीं, यह तो बड़ी पुरानी बात हो गई. (शाम के एक कोने में टेपों से घिरा बैठा था, जाने कितनी सुबहें इनमें उतरते देखी थीं उसने, जाने कितनी रातें इन्हें जांचते काटी थीं, जाने कब इन्हें सुनते दुगुनी तेज़ी से बढ़ने लगा, बुढ़ाने लगा. जाने कैसे एक हफ्ते पुराना सन्देश एक साल पुराना हो गया. आज, शाम के इस कोने में, अहसास हुआ -...

βλεπομεν γαρ αρτι δι εσοπτρου εν αινιγματι

मेरी खिड़की से झांकते आसमान में अब भी कभी-कभी चाँद आ जाता है. लेकिन अफसानों की टोकरी लिए अब उससे कोई उतरता नहीं. बोतल-भर धूप अभी भी कोने में रखी है पर अब मकड़ी के जालों से घिरी. खिड़की के नीचे आज भी वही झील है हरी काई से ढकी, और आस-पास के पेड़ों पर सफ़ेद परियाँ टंगी हैं, अंधी, चिमगादड़ों सी.