संदेश

जून, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जाने नहीं दूंगा - 2

कुछ बचा नहीं है कहने को अब। कुकर की सीटी की गंध, टेबल पर छूटे कप के निशान, उड़ चुके हैं। टपकते पानी की आवाज़, जीत की ख़ुशी का शोर, बंद हैं। अब बस विदा खिड़कियों से, परछाइयों से, बोतलों से, रंगों से, कंगनों से, शंखों से, बादलों से, बूंदों से, शब्दों से, अर्थों से।

Crochet

अब इतना वक़्त कहाँ के मुझसे बातें हो सकें, अब तो सारा वक़्त उसका बुनाई में ही कटता हैं। पहले तो अजीब लगा पर ये लगातार घूमते पैटर्न ये शक्ति दे रहे थे उसे लगातार लड़ते रहने की। कुछ भी बदला नहीं अब तक हम तो थक गए लड़ते-लड़ते पर वह अब भी लड़ रही है वही पुराणी लड़ाई।