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सितंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आवाज़

कभी किसी पार्टी में पहना गया होगा यह फ्राक . और आज इसे पहन सुन रही है किसी भी गाडी के रुकने की आवाज़. जैसे ही हो कोई बिना खिड़की के इस कमरे से निकल बाड़ की टूटी तीलियों के बीच से प्लेटफार्म पर पहुंचे अपनी खिडकियों से कुछ कमाई हो रात के खाने के वास्ते.

झंकार

तलवारें टकराई, सब मजाक-सा लगा मुझे वहां बैठ उन्हें देखकर. बेअकल. बेतुका. पर फिर अहसास हुआ - यह हमारे ही पागलपन का आखरी पड़ाव है.

वादी

एक दफा एक जंगल था सुंदरबन जैसा पर कई गुना बड़ा और अनछुआ. मैं वहाँ था, कुछ ढूंढ रहा था, याद नहीं पड़ता क्या. तब वह भीड़ मिली मुझे सब रो रहे थे, मैंने पूछा क्यों, कहने लगे 'हम सब खो गए हैं इस जंगल में, बहुत डर लग रहा है अकेले.'