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सपने

मैंने देखा था एक सपना औरों की ही तरह मेरेवाला भी टूट गया. गीली घास पर लेटे, हाथ फैलाए, जब त्वचा पर ठंडी हवा महसूस हुई और नथुनों में बहनी बंद हुई मैंने तय किया अब और नहीं देखूंगा.

किसलिए?

मैंने देखा अपने सबसे चमकदार दोस्तों को सड़क के बीच लड़ते हुए, कुछ और लोगों के लिए अपने से दुगने बड़े दबंगों से बिना जाने क्यों बिना जाने किस बात पर लड़ रहे थे वह उनके आने से पहले. शायद क्वार्टर के लिए या सोडे के लिए या किसी और वजह से पर साथी थे तो उनका साथ तो देना ही था. मैंने देखा अपने सबसे प्यारे दोस्त को टूटते हुए छोड़ आए थे उसे अकेला वही सब जिन्हें बचाने को रुका था वह वहाँ. मैंने देखा अपने सबसे क़रीबी दोस्त को टूटते हुए अलग जो कर लिया था उसे उसकी पहचान के कारण उसका ईमान मुसल्लिम होने के कारण. मैंने देखा यहाँ के सबसे शांत व्यक्ति को हल्ला मचाते नशेड़ियों की चक्की में पिसते हुए. और फिर देखा खिड़की से आती रोशनी में उसके शांत चेहरे को और आँखों के झिलमिलाते कोनों को सोते हुए.

प्रक्रिया

हर दिन हर सुबह जारी है कुछ सीखने की कोशिश कक्षाओं में. लग जाता है बहुत वक़्त इन में, कहीं पीछे बैठ कुछ लिख लिया कभी. पूरा दिन बेकार सवेरे से शाम तक लिखो तो घुस पाओ उसमें, पर इतना कम लिखता हूँ, बेकार.

मसीहा

चला आया हूँ तेरे पास उम्मीद लिए पहचान करने की इस अजनबी शहर से. अपने पंख से छू कर, पंखुड़ी से काट कर, आज़ाद कर दे इस शरणार्थी को. या दे दे एक वजह बंधे रहने की इन जंजीरों में.

वह जिसने कुछ खोया / कचरेवाला

चाहते हैं वे मैं सुनूँ सुनता रहूँ आवाजें मशीनों की जो चल रही हैं चारों ओर हर ओर बिना सहायता के. कभी एक आवाज़ थी मेरे पास भी जवाब देती थी वह पर अब चुप रहती है वह अभ्यास जो कुछ किया था उससे बहुत आगे निकल आई हैं ये सारी आवाजें. पर फिर भी भर रहा हूँ अपना झोला बड़ा होता झोला मेरा झोला मुझ-सा झोला झोले-सा मैं झोले वाला मैं झोले में छुपा मैं झोला बहुत बड़ा झोला.

मकड़ी

प्रिय अ कह नहीं सका कभी तुम क्रोधित थी कभी मैं कटु. लिख रहा हूँ कुछ शब्द एक अजनबी भाषा में तुम्हारे नाम - 455F09EE3E7BF2B4 F4292E018B323833 A6FBAB5F4CC6A720 EB3CFA04059767C3 C1B6EB58DCBB87CB 186A2D111F4BF229 B44090E31125DA01 77758B7E86B5ADFB 6DF7FA4F8AC6DD53 DF9FAADF6F8F3756 219E61EB6991F151 7310DD7E90513C70 3B3AE240D386D930 2EFCD525F698BCBB - ना, तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा नहीं है मुझे, प्रयास न करो समझने का, अभ्यस्त हो चूका हूँ अब तुम्हारे मौन का आठ भुजाओं और असंख्य आँखों वाले मौन का. कठिन था बहुत खिड़की के नीचे खड़े होकर तुम्हें पुकारते रहना घंटी और मंजीरा लिए, पर अब सिल पर निसान पड़ ही गया है.