पेड़ बनना

धीरे धीरे
उसकी खाल पिघल कर
फिर से जम गई.
अब कुर्सी के हत्थे भी
उसके हाथ का एक हिस्सा थे.
हाथ हिला पाना अब
मुमकिन नहीं रहा था
बिना अपनी खाल
खुद ही खींचे.
और फिर क्यों कोई
उठे, चले, लड़े, काटे
वे फोड़े दिखाए
जो लगातार बैठे रहने से
पीठ पर उभर आए हैं?
क्यों छिलने दे खाल
जो चिपक गई है
कुर्सी के चिकने चमड़े से?
वृक्ष रह जाएगा बस एक
अपने आसमान की तलाश में
वहीँ पसरा
उँगलियाँ तानता, फैलाता
पत्ते झड़ता, अपने काँटों से
चाँद को लहू-लुहान करता
अपनी ही रगड़ से
हवाओं में झूमते हुए
जलता.
जलता हुआ एक वृक्ष
धुआं उगलता
लपटें वहां भेजता
जहाँ पहुँच न पाती
उसकी उंगलियाँ.

टिप्पणियाँ

गति जीवन का बड़ा लक्षण तो है ही. गति न कर पाना भीषण यातना भी है.कई बार हम चाह कर कुछ देर अंगों को निश्चल रखने की कोशिश करते हैं तो ही बड़ा कष्ट होता है - कम से कम मैं तो भाप-स्नान के बक्से तक में कुछ ही सेकेण्ड में बेचैन हो उठने वाला प्राणी हूँ. शिथिलीकरण भी नहीं साध पाता. मृत्यु की प्रतीक्षा में शय्या पर जड़वत पड़े रहे कई आत्मीयों का स्मरण इस क्षण भी मुझे विचलित कर रहा है.इस कविता ने जाने क्या-क्या याद दिला दिया!
किसी का आकार गढ़ने में, किसी को सजाने में, हम उसके प्राण हर लेते हैं। कितना अच्छा हो, उनको वैसे ही रहने दिया जाये, जैसा प्रकृति ने चाहा, जैसे नियति ने चाहा।

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