विजया ऐसी छानिए

काले आकाश में
मकड़ी के जाल सी
फैली चांदनी
कुछ ऐसी लग रही थी
जैसे दरारें उभर आईं हों
दो दुनियाओं के बीच.

धीरे धीरे
विजया छन रही थी
उस दुनिया से
इस दुनिया में.

सफ़ेद पानी सी हवा बह रही थी
कागज़ के कुछ टुकडे थे
भँवरों में कैद.
जाने किसके इंतज़ार में
गोल गोल घूम रहे थे.
दवाइयों के पर्चे थे,
बियर के कैन
और सिगरेट के बट भी.

उसने पूछा,
मैं बहुत दर्द तो नहीं दे रही तुम्हें,
आँखों के पीछे एक गर्माहट-सी उठीं
फ़िल्टर तक पहुँच चुकी सिगरेट का
एक गहरा कश खींचा
और होंठ हलके-से जल उठे
जीभ के छाले भी तमतमा उठे.
रोक ही लिया सबने मिलकर
आँसुओं को.

(कभी आखों को निचोड़ो तो एक बूँद भी नहीं मिलती,
कभी गला न भर आए यह डर सताता हैं.)

नहीं, आज नहीं, अब नहीं,
यह तो बड़ी पुरानी बात हो गई.

(शाम के एक कोने में
टेपों से घिरा बैठा था,
जाने कितनी सुबहें
इनमें उतरते देखी थीं उसने,
जाने कितनी रातें
इन्हें जांचते काटी थीं,
जाने कब इन्हें सुनते
दुगुनी तेज़ी से बढ़ने लगा,
बुढ़ाने लगा.
जाने कैसे एक हफ्ते पुराना सन्देश
एक साल पुराना हो गया.

आज,
शाम के इस कोने में,
अहसास हुआ -
ईश्वर ज़रूर नौजवान होगा.)

फिर चला गया चाँद
मेरे आकाश से,
ले गया अपने साथ
वह सारी दरारें
अभी तो और छननी थी विजया,
अभी तो बहुत बाकी है रात.
आता भी देर से है,
कई बार तो उसकी राह तकते
आँख लग जाती है,
हँसके कहता है
और भी हैं चाहने वाले उसके.

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सब अपनी व्यथा चाँद से ही तो कहते हैं।

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