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दिसंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रेम - २

प्रिय अ याद है तुम्हें वह गुफा सफ़ेद, बर्फीली पहाड़ी पर? याद है वह पुल पार कर मुझ तक पहुँचना? और फिर मैंने देखा था खुदको तुम्हें गर्माहट पहुँचाते, और तुमने मुझे देखा तुम्हें धकेलते नीचे. पर तुमने वह वक़्त आने ही नहीं दिया. उस पल से पहले ही दीवारें खड़ी कर ली अपने चारों ओर. मौका ही नहीं दिया वक़्त को छीनने का.

फिर से - ३

आँख खुली तुम खड़ी थीं, जाने-पहचाने कपड़ों में, देख रही थीं कैनवस पर उतरे- समय में अटके- मुझे. धड़कन अचानक बढ गई खूब कोशिश की मैंने लगाम खींचने की- कहीं तुम सुन न लो दरवाज़े पर दस्तक. धूप में नहा गया मैं पर बर्फ पिघलने से पहले ही आँख खुल गई. ----- Check out earlier फिर से here and here .

बगूला

रेत- पिसे काँच सी- एक पल रुकता हूँ काटने लगती हैं. लाल, गर्म खून की बूँदें. दौड़ रहा हूँ, पिंडलियों में तेज़ाब-सा दौड़ रहा है, और दिल जैसे किवाड़ खडखड़ा रहा है. पर यह विध्वंस चला आया है मेरे साथ ही इन दीवारों के पीछे.

धारा

बीमार, पीली पड़ी रोशनी और सीलते पानी की गंध. दीवार पर टँगा, कैनवस पर उतरा मैं - कुछ पुराना - दुखी, पर संतुष्ट. इस ही दीवार में उस दरवाजें को खोजता जो खुलेगा समय से परे. अब, जा चुकी है वह पेंटर और दीवारों में, जो बाहर रखती थी प्रकृति को, कैद है एक शिष्ट मनुष्य.

नया सवेरा - 2

हर शाम वही पुल और मुझसे दूर बहती नदी. पर अब केवल सिन्दूरी होती है नदी और धीमें-धीमें उतरता है अँधेरा- धीरे धीरे अपनी लपटों में मुझे लपेटते हुए. .... Check out the first poem here . Starting a new series today, Deewar - 25 poems in 25 days. I know Deewar is such a horrible sounding name, but one can't escape the symbols one grow up with, can he? So yes, this comes from Pink Floyd's The Wall. The time based series were okay, now trying a theme based one :)

डिप

नीली रौशनी से भरे कमरे में बैठा हूँ मैं, और तुम भी किसी गहरे कमरे में खुद को छुपाए बैठी हो. ठीक हैं यहीं बैठ कर पान थूकते हैं, इन दीवारों पर. देर तक. दूर तक, और दूर तक... ठीक हैं. यहीं बैठ कर कुछ कांच फोड़ते हैं छन छन छन. कांच के टुकडों पर घूमेंगे थोडा, नीली दीवारों के बीच. ठीक हैं. यहीं बैठ कर रिसते हैं, मौत तक टप टप टप.

मोड़

कई मोड़ हैं बिखरे हुए इस शहर में. कभी इन्हीं मोड़ों पर मिल जाते थे तुम्हारे दोस्त और तुम. चाय की प्याली पर बातें भी खूब होती थीं, कुछ-कुछ समझने लगा था तुम्हें चाहे जानता नहीं था - जानना चाहता भी नहीं था. आज भी वे मोड़ वहीँ पड़े हैं.

चीख - 3

गूँज भी तुम्हारी आवाज़ की अब सुनाई नहीं पड़ती. थक गई है शायद आराम चाहिए होगा उसे. या सिर पटक पटक प्राण ही निकल गए होंगे अब तक शायद. पर सुनकर भी अनसुना ही तो कर रहा था फिर कैसा शोक इस मौत पर.