βλεπομεν γαρ αρτι δι εσοπτρου εν αινιγματι

मेरी खिड़की से झांकते आसमान में
अब भी कभी-कभी चाँद आ जाता है.
लेकिन अफसानों की टोकरी लिए अब
उससे कोई उतरता नहीं.
बोतल-भर धूप अभी भी कोने में रखी है
पर अब मकड़ी के जालों से घिरी.
खिड़की के नीचे आज भी वही झील है
हरी काई से ढकी,
और आस-पास के पेड़ों पर
सफ़ेद परियाँ टंगी हैं, अंधी,
चिमगादड़ों सी.

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