एक परी थी हाथ नहीं थे उसके, पर थे हलकी थी, हड्डियां खोखली थीं पर उड़ान, उड़ान नहीं थी पंख फैलाए, तैरती हवा पर हर पल थोडा नीचे उतरती उतरती जाती, उतर जाती. परी थी, पर आधी मानस गंध थी उसमें. एकांत परिरोध.
घर भर गया है पारदर्शी शीशियों से, सब खाली है लगभग अदृश्य, अर्थों की प्रतीक्षा में. ... ठीक हैं. यहीं बैठ कर कुछ कांच फोड़ते हैं छन छन छन. कांच के टुकडों पर घूमेंगे थोडा, नीली दीवारों के बीच.
मैच जीत कर चहकते-फुदकते बच्चों सी बूँदें फ्रेंच विंडो से झांकते हम. सफ़ेद शंख का कंगन सब कुछ धुला-धुला. किसी और कहानी से धूल भरी लाल आंधी चली आई बारिश से ठीक पहले. फिर बरसा काला पानी जो भी भीगा, कालिख में नहा गया.
दुनिया के और हिस्सों में कोई और नाम है उसका, उस नाम के साथ वह ना कल्पतरुओं पर झूलती है ना पुराणी लड़ाइयाँ लड़ती है. पर मेरी भी जिद्द है झूलना भी होगा, और लड़ना भी. उसने भी रोक लगा दी है यहाँ दिखा नहीं सकता उसका रंग, उसकी आखें उसकी आवाज़, उसकी कपकपाहट. बस शब्द और विचार. और मेरा दिया नाम. सोफ़िया.
कुछ बचा नहीं है कहने को अब। कुकर की सीटी की गंध, टेबल पर छूटे कप के निशान, उड़ चुके हैं। टपकते पानी की आवाज़, जीत की ख़ुशी का शोर, बंद हैं। अब बस विदा खिड़कियों से, परछाइयों से, बोतलों से, रंगों से, कंगनों से, शंखों से, बादलों से, बूंदों से, शब्दों से, अर्थों से।
अब इतना वक़्त कहाँ के मुझसे बातें हो सकें, अब तो सारा वक़्त उसका बुनाई में ही कटता हैं। पहले तो अजीब लगा पर ये लगातार घूमते पैटर्न ये शक्ति दे रहे थे उसे लगातार लड़ते रहने की। कुछ भी बदला नहीं अब तक हम तो थक गए लड़ते-लड़ते पर वह अब भी लड़ रही है वही पुराणी लड़ाई।