संदेश

जड़ें

आज रात तुम और मैं उड़ चलेंगे दूर, फिर कभी न देखेंगे पीछे मुड़कर. इस कल से उड़ चलेंगे हम बहुत दूर. और तेज़ इतना तेज़ धुंधला जाएगा सब. चाहे वे रोकें, कुछ भी कहें जला देंगे हम सब रास्ते, सब पुल. ... एक पत्र- घर तुम्हारे बचपन का बिकने वाला है अब. इच्छा हो तो आ कर देख लो एक आखिरी बार. ... छत पर बना वह अकेला कमरा आज भी है वैसा ही, सबसे ऊपर और सबसे शांत, सामने उसके टंकी भी है वही पुरानी- कभी टुकड़ों में बँटा बाथरूम (जो आज भी बँटा है, वहीँ नीचे) नहीं मिलता था तो यहीं नहाते थे हम. सब है वैसा ही बस कोई स्पर्श, कोई छुअन नहीं. नीचे वही लाल ईटों का बरामदा है और वही दरारें है, खाटों पर बिछी माँ की सुनाई कुछ यादें है, पर मेरी अपनी कोई नहीं. ... अर्थहीन ही है अब बचपन का घर वहाँ पला-बढ़ा बचपन, खोया हुआ बचपन. हाँ, अब जो रहते हैं वहाँ उनका बनाया डाक टिकटों का संकलन बहुत प्यारा है, और उनका गर्व अपने संकलन पर- बच्चों जैसा.

बहाना

दराज़ में दुबके वे दो कंगन, काली स्याही में डूबी वह कमीज़, अँधेरे कोने में छिपी बारिश की दो बूँदें- बाहर आ गए आज कला और कथा के बहाने. अच्छा है... हमारे बीच के फासलों को रोशनी से भरने के लिए जला लिया है सारा घर.

कुलस्यार्थे त्यजेदेकं

कतई सरल नहीं वध करना- अत्यंत आवश्यक है पवित्र होना, निरपराध होना - अबोध होना. जानना कि मृत है वह पहले ही. छोटी-सी भी शंका के लिए कोई स्थान नहीं यहाँ- कोई रिक्तता नहीं. सिर रख उसके कंधे पर घंटों रोया था, वह भी बाहों में भर बहुत भावुक हुई. स्वाभाविक भोलापन हमारा निखर रहा था तब- विरासत में मिला था कवि पिता से, कभी. ... प्रेम- खिली धूप सा आनंद आसमानी रंग लिए अपराध-बोध. ... संभवतः एक कदम तक बढ़ा न पाऊँ बिना सहारे, तख्ते से बंध कर ही खड़ा हो पाऊँ मैं पाश के नीचे. परन्तु, झूलूँगा जब शुद्धि कर लेने का संतोष रहेगा. और खेद तुम्हारे द्रोह पर.

विसंवाद

भित्ति-चित्र- मेज़ पर बैठ कोई चिट्ठी पढ़ रहा था, मग रखा था पास ही, पहली दो-तीन पंक्तियाँ दीख रही थीं जाने किस भाषा में- उतार ली मैंने नैपकिन पर. ... आँख खुली. आवाज़ बंद थी, टीवी पर कोई बाबा योग सिखा रहे थे. मुँह फेर फिर सो गया. ... लाल प्रकाश से भरा एज़्टेक का पिरामिड. कॉफ़ी पी रहे थे हम नीचे बैठ. शोर भरा था बीच पर चुप थे हम दोनों. चौरासी हज़ार गुलामों की बलि पर कोई शोर नहीं यहाँ. केवल प्रकाश, लाल प्रकाश और लाल छाया-आकृतियाँ. ... आँख खुली. आवाज़ बंद थी, टीवी पर एक कवि का खून बह रहा था - कुछ पल्ले नहीं पड़ा. मुँह फेर फिर सो गया. ... कुछ बात कर रहे थे चार धुंधले चेहरे- सुन नहीं पा रहा था मैं. पर कोई बहुत बड़ा डर हावी था उन पर. पास गया- सुन रखी थी पहले भी उनकी सारी बातें, पर कहाँ, याद नहीं अब. ... आँख खुली. आवाज़ बंद थी- और तस्वीर भी. न तो वे चहरे, न उनकी आवाजें, न बातें ही याद रहीं- पर डर अभी बाकी है. ... कोने में बैठ गपियाने लगा एक चूहा घुस आया था जाने कहाँ से- पाताल में ऊपर देखो कोई ढक्कन खुला हो अगर सदा तारे दीखते हैं- खाने को खूब मांस मिलता है, अजब कसाई रहते हैं यहाँ ऊपर काटते हैं, ह...

विरूपण

प्रेम, हर दोपहर अब अकेले नहीं करती थी भोजन, ना ही छुट्टियाँ अब अकेले बितती थीं- कभी माया मेमसाब देखते, तो कभी हरिया हरक्यूलीज़ से बातें करते. पास बैठते, और तुम्हारी पूंछ घेर लेती मुझे. प्रेम, साथ लेटते- जकड़ लेती तुम्हारी पूंछ, उँगलियाँ बालों में, गर्दन पर और नीचे सहलाती पूंछ. पर, अपने कथित विरूपण से रूप की ओर बढ़ चली तुम- भय दूर कर, हिस्सा बनने- जुड़ने- सब से बड़े समुदाय से, भीड़ से. बस थोड़ी-सी चीर-फाड़. फिर भी- आज भी अकेली हो कटी हुई-सी. और वह भी नहीं हो प्रेम था जिससे.

द्वन्द्वातीत

पंक्तियाँ ख़तम होते ही बदल गए उसके भाव, -उसका चेहरा, उसकी आँखें, अटकी हुई साँस- सब पूछ रहे थे सही तो किया न? यही था न मेरा किरदार? ... दूरदर्शन चलता रहा और मैं सोफे पर ही सो गया. हर शैली में तुमसे प्रेम कर भी तृप्त नहीं हुआ मन. फ़र्ज़ अदाई-भर कर रही थीं तुम. तुम्हारी नाभि बड़ी करी पेचकश से, तब कुछ संतोष हुआ प्रेम कर. नहा-धोकर आया तड़पते हुए तुम्हें देखा न गया. गीला तौलिया तुम्हारे गले पर लपेटा और तुम्हारी आखरी साँस के साथ मेरी नींद भी टूट गई. ... अभय घूम रहा था उत्तराधुनिक दिल्ली में, जब बाहर निकला इतनी गाढ़ी बह रही थी हवा एलिस होती तो पी ही लेती. कभी बहुत बड़ा था कचरे का यह ढेर, अब बढ़ा रहा है अपनी सीमाएं किसी पुराने राज्य की तरह. तीन दिन तो लग ही जाते है लाश के मिलने में, गंध आती भी है तो कुत्ते की होगी सोच कोई देखता नहीं. ...

विश्वास

एक उपहार हर वर्ष लाता था जाड़ा बाबा. अच्छा लगता था मुझे तुम भी मुस्कुराती मुझे देख कहती खुश है वह मुझसे. पर माँ, उसमें विश्वास न था मुझे, तुममें था