विसंवाद

भित्ति-चित्र-
मेज़ पर बैठ कोई
चिट्ठी पढ़ रहा था,
मग रखा था पास ही,
पहली दो-तीन पंक्तियाँ दीख रही थीं
जाने किस भाषा में-
उतार ली मैंने
नैपकिन पर.
...
आँख खुली.
आवाज़ बंद थी,
टीवी पर कोई बाबा
योग सिखा रहे थे.
मुँह फेर
फिर सो गया.
...
लाल प्रकाश से भरा
एज़्टेक का पिरामिड.
कॉफ़ी पी रहे थे हम
नीचे बैठ.
शोर भरा था बीच
पर चुप थे हम दोनों.
चौरासी हज़ार गुलामों की बलि
पर कोई शोर नहीं यहाँ.
केवल प्रकाश, लाल प्रकाश
और लाल छाया-आकृतियाँ.
...
आँख खुली.
आवाज़ बंद थी,
टीवी पर एक कवि का खून बह रहा था -
कुछ पल्ले नहीं पड़ा.
मुँह फेर
फिर सो गया.
...
कुछ बात कर रहे थे
चार धुंधले चेहरे-
सुन नहीं पा रहा था मैं.
पर कोई बहुत बड़ा डर
हावी था उन पर.
पास गया-
सुन रखी थी पहले भी
उनकी सारी बातें,
पर कहाँ, याद नहीं अब.
...
आँख खुली.
आवाज़ बंद थी-
और तस्वीर भी.
न तो वे चहरे, न उनकी आवाजें,
न बातें ही याद रहीं-
पर डर अभी बाकी है.
...
कोने में बैठ गपियाने लगा एक चूहा
घुस आया था जाने कहाँ से-
पाताल में ऊपर देखो
कोई ढक्कन खुला हो अगर
सदा तारे दीखते हैं-
खाने को खूब मांस मिलता है,
अजब कसाई रहते हैं यहाँ ऊपर
काटते हैं, हंगामा करते हैं
और लाशों को भूल जाते हैं.-
मेरी बारी आई
तो चलता बना जाने कहाँ.
शायद गंदे नालों से
सुन्दर नक्षत्र देखने.
...
आँख खुली,
जाने कब लग गई थी.
उबलते पानी में
फुदकते चूहे की छाया-आकृति
बनी हुई थी अब तक आँख में,
अचानक गूंगा हो गया था वह-
याद नहीं पड़ता क्यों.
और उबलता पानी?
...
फिर तुम चली आई
पैनी कॉफ़ी ने जगाए रखा मुझे.
हमारे बीच,
प्रेम की खाल ओढ़े,
दबे पाँव आ बैठी एक शांति.
...

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