भिनभिनाती मक्खियाँ

गहराते अंधेरों में
नया कुछ दिखने लगता है
अपने आप.
उभरने लगती है
काली दीवार पर
एक परछाई,
लौट लौट आती हैं मुझतक
परछाइयों से टकराकर
प्रतिध्वनियाँ.
एक मुंह खुला है दीवार में
परछाई थी जहाँ
रास्ता है कोई अब
या कोई गुफा शायद.
ऊन से छनकर आती
छपाकों की आवाजें,
खांसी की दवा पीकर
कपड़ों से भरी अलमारी में.
उछलती अंधी मछलियाँ
अंधे तालाब में,
धीरे धीरे जागता
एक बच्चा.
उपसतहों में रेंगता,
दौड़ता, ढूंढता
अँधा तालाब.
काले शब्दों से भरा
आवाज़ वाले शब्दों से
छवियों से बिछड़े शब्दों से
मुर्दा शब्दों से
लाशों से.
(सतह पर बहती नदियों से
जाने कितने मछुआरों ने
भालों की नोकों पर इन्हें
एक एक कर पकड़ा
और निर्वासित कर दिया
सदा के लिए
उपसतहों में
मरने के लिए
एक हुकुम पर.
उसके हुकुम पर -
मक्खियाँ नहीं बैठती उसपर
बड़ी खास है वह.
इतनी स्वच्छ की गंगा भी
उसे छूकर पवित्र होती है.
उसके फैट से ही बस
नहाने का साबुन बनता है.
)
कोई भटका कौवा कभी
खिंचा चला आता है
शवों की गंध से,
उतर जाता है
गाढ़े अन्धकार में
कैद में
किसी गहरे कमरे में
टप टप टप टप
धीरे धीरे रिसते खून की आवाज़ में
तालाब के पास प्रतीक्षा में बैठे
किसी भूले अश्वमेध के
बूढ़े घोड़े के पास.
प्रतीक्षा में
छवियों के उभरने की
गहराते अन्धकार में
काले शब्दों के बीच.
तालाब के बीच शायद
शब्दों से बना कोई
द्वीप उभरेगा,
शवों की खाद से
उर्वर बड़ा होगा.
कोपल फूटेगा एक दिन
कल्पवृक्ष जागेगा
फूल खिलेंगे
बायोलूमनेसन्ट.
या शायद तालाब के नीचे
शवभक्षी कीड़ों की भीड़
सब को चट कर रही है लगातार
स्क्विड-इंक तैयार कर रही है
गहरी काली इंक
गहरे काले तालाब में.
कोई गोताखोर जब
मोतियों की तलाश में
उतरेगा तालाब में
ज़हरीली इंक से -
फूलने लगेगी उसकी जीभ
भर जाएगा मुंह,
गाल ऐसे सूजेगे कि
भिंच जाएंगी आखें,
गर्दन के ऊपर बस
उसका चौड़ा माथा होगा.

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