तेरे कैनवस दे उत्ते

प्रिय अ,
याद है तुम्हें वह दिन
जब अमृताजी को सुनते हुए
कहा था तुमसे-
मैं भी उतर आऊंगा एक दिन - कई वर्षों बाद -
तुम्हारे कैनवस पर,
और तुम बोल उठी थी
ले जाएगा तुम्हारा ब्रश हमें
सोने के दो कंगन
और बारिश की कुछ बूंदों के पास.

प्रिय अ,
कुछ ही दिनों में
खो गई तुम अपनी ज़िन्दगी में
छूट गया ब्रश
धूल जम गई कैनवस पर
ऐसे सूख गए शीशियों में भरे रंग
अब बस खरोंच सकती है उन्हें
तुम्हारी उँगलियाँ.

प्रिय अ,
रुई-से सपनों और अधबुने रिश्तों के बीच
आज भी इंतज़ार हैं मुझे
रहस्यमयी लकीर बन
तुम्हें तकने का.

टिप्पणियाँ

मुझे पसंद आई आपकी यह रचना.
मुझे भी :)

पर..........
‘ऐसे सूख गए बोतलों में भरे रंग’

इसी लिए तो आजकल बोतलों में लाल रंग भरी जा रही है और उसे लाल परी का नाम दिया गया है :)
Luv ने कहा…
thank you! thank you!

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