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अप्रैल, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कुतरन

गिफ्ट-व्रैप किए डब्बे में कभी एक कान मिले तुम्हें, साफ़, साबुन की गंध लिए तो पहचान तो जाओगी किसका है? चौन्कोगी तो नहीं जानकर? कभी पकी रहती थी कान की लव तुम्हारे काटने से. मेरे काटने से नहीं पकी.

पर क़तर देंगे

उसने बांधा, एक लाल धागा, मेरी कलाई पर उसने कहा, बांधे रखेगा यह मेरी आत्मा को, मुझसे मुझमें। वह घबरा गई थी, टूटते देख सारे बंधन मेरी आत्मा देखी थी उसने उड़ते हुए।

चुप्पी

मैं सोच नहीं रहा था देख नहीं रहा था जो मैं खोनेवाला था जो खो रहा था। बस एक पलायन था एक दौड़ थी उस पल में कुछ और नहीं बस एक दर्दभरी चुप्पी थी।

दमा

गले में अन्दर कहीं खुजली सी हो रही है. धसका सा उठता है कुछ देर खांसता हूँ पर वह खुजली जाती नहीं. नाखून बड़े हैं उंगलियाँ गले तक आ कर रुक जाती हैं कभी हलकी-सी खुरच और बूँद भर खून पर इतना काफी नहीं अब समय आ गया है अंगूठे से कंठ तक पहुँचने का.

थकन

कस रही है कुंडली दम घुट रहा है और उसी के साथ सांस लेने की इच्छा भी। अब और उठना नहीं लड़ना नहीं, सो जाना है, बस यहीं।

हैदराबाद

एक टुकड़ा इस शहर का चलता है मेरे साथ, बस उसे छोड़ने ही फिर आया हूँ यहाँ।