वह हमेशा पड़ी रहती बिस्तर पर, पर कहती निद्राभाव है! मैंने देखा फिर आँखें उसकी सदा रहती अधखुली. रातों को उठकर सवारती अपने केश, लगाती बटन, लगता जागी है, पर अटक गई थी किसी सेतु पर दो दुनियाओं के बीच जागने लगे उसमे, कुछ भय, दिखने लगे जाने कौन, और वह सदा दूर निद्रा से. बंद हो गया फिर बात तक करना, बंद हो गया रातों को उठना, हमेशा बिस्तर पर, आँखें खोले. उसका मस्तिष्क घुल रहा है किसी पिलपिले तत्व में. देख रहा हूँ मैं असहाय तड़पते उसे ... अचानक! ** Making an entry here everyday doesn't look like one of my better decision. I had taken it as my output had drastically slowed down. Now, after 3 weeks, I have reshaped as a post every Sunday. Hope that be better. The trouble is I feel I have exhausted everything I wanted to write about within first few months after I started out.
टिप्पणियाँ
थोड़े ही कुछ छूटता है?
कुछ और
जुड़ जाएगा।
साथ में आ जाएगा
जहां भी जाएँगे
साथ, याद आएगा।