धूप - 5

नदी पर झुक गया था सूरज
सिन्दूरी हो चली थी शाम,
और तुम आने वाले थे
रात के साथ.

रात आई.
पसर कर बैठ गई.
तुम न आए.
न तुम्हारे कदमों की आहट ही.

फिर सुनहरी धूप खिली,
मेरी अपनी.

टिप्पणियाँ

हाय! उस सिंदूरी शाम से जो सिंदूर रात के लिए चुराया था वह बेकार गया॥
nilesh mathur ने कहा…
उफ़, बेहतरीन , बहुत दिन बाद इतनी सुंदर रचना पढ़ी है भाई।
nilesh mathur ने कहा…
ये वर्ड वेरिफिकेसन हटा दो । बहुत दिक्कत होती है।

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