उन दो कंगनों को खिड़की से भीतर प्रवेश करने के लिए कह दीजिए. 'दीवार में एक खिड़की थी' में तो लोग दरवाजे से नहीं बल्की खिड़की से ही आना-जाना करते हैं. और, उसी खिड़की से घर-बाहर के लोग नई दुनिया में प्रवेश करते हैं.
वह हमेशा पड़ी रहती बिस्तर पर, पर कहती निद्राभाव है! मैंने देखा फिर आँखें उसकी सदा रहती अधखुली. रातों को उठकर सवारती अपने केश, लगाती बटन, लगता जागी है, पर अटक गई थी किसी सेतु पर दो दुनियाओं के बीच जागने लगे उसमे, कुछ भय, दिखने लगे जाने कौन, और वह सदा दूर निद्रा से. बंद हो गया फिर बात तक करना, बंद हो गया रातों को उठना, हमेशा बिस्तर पर, आँखें खोले. उसका मस्तिष्क घुल रहा है किसी पिलपिले तत्व में. देख रहा हूँ मैं असहाय तड़पते उसे ... अचानक! ** Making an entry here everyday doesn't look like one of my better decision. I had taken it as my output had drastically slowed down. Now, after 3 weeks, I have reshaped as a post every Sunday. Hope that be better. The trouble is I feel I have exhausted everything I wanted to write about within first few months after I started out.
Maybe All This -- Wislawa Szymborska शायद यह सब किसी लैब में हो रहा है? जहाँ दिन में एक बल्ब जलता है और रात को कई? शायद हम सब किसी प्रयोग की उपज हैं? एक से दूसरी शीशी में उलटे जाते टेस्टट्यूबों में घुमाए जाते, सिर्फ आखों से ही नहीं परखे जाते पर एक-एक कर उठाए जाते चिमटे के मुँह से? या शायद कोई हस्तक्षेप नहीं करता? सारे बदलाव आप ही होते हैं सुनियोजित ढंग से? ग्राफ बनता जाता है अनुमान अनुसार? शायद अब तक हममें कुछ दिलचस्प नहीं? आमतौर पर हम पर नज़र टिकती नहीं? बस बड़े युद्धों के लिए, या जब हम अपने हिस्से की ज़मीन से ऊंचे उठते हैं, या धरती के एक कोने से दुसरे में चले जाते हैं? या शायद इसके विपरीत हो एक दम छोटी-छोटी बातों में दिलचस्पी हो उन्हें? देखो ज़रा! बड़े परदे पर छोटी सी बच्ची अपनी ही आस्तीन पर बटन टांक रही है. चीखता है निरीक्षक और दौड़ें आते है सब लोग. कितना प्यारा जीव और कितना नन्हा-सा धड़कता दिल उसका! सुईं में धागा पिरो रही है कितने ध्यान से, देखो! ख़ुशी से चीख उठता है कोई : बॉस को बुलाओ! उन्हें तो यह अपनी आखों से देखना चाहिए!
प्रिय अ, याद है तुम्हें वह दिन जब अमृताजी को सुनते हुए कहा था तुमसे- मैं भी उतर आऊंगा एक दिन - कई वर्षों बाद - तुम्हारे कैनवस पर, और तुम बोल उठी थी ले जाएगा तुम्हारा ब्रश हमें सोने के दो कंगन और बारिश की कुछ बूंदों के पास. प्रिय अ, कुछ ही दिनों में खो गई तुम अपनी ज़िन्दगी में छूट गया ब्रश धूल जम गई कैनवस पर ऐसे सूख गए शीशियों में भरे रंग अब बस खरोंच सकती है उन्हें तुम्हारी उँगलियाँ. प्रिय अ, रुई-से सपनों और अधबुने रिश्तों के बीच आज भी इंतज़ार हैं मुझे रहस्यमयी लकीर बन तुम्हें तकने का.
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