संदेश

घर

मेज़ पर चाय के प्याले का निशान अभी तक बैठा हुआ था कि एक हल्का सा धसका उठा, रसोई में छौंक लगा था शायद. फिर जानी पहचानी एक आवाज़ उठी - तेल में उतरती पूड़ियों की. घर आया था आज.

कौवे

दूधिया कोहरा लपेटे कौवे बैठे हैं छतों पर चोंचों में उंगलियाँ दबाए जाने किन आलोचकों की.

सोफ़िया - 22

मुँह फेरे बैठी है वह, उतारना नहीं चाहती खुद में मेरी ख़राशों को और, एक नई सूरत अब देना चाहती है मुझे वह कविता जो तुम-सी लगती है.

पंक्तियाँ

कविताएं मर रही हैं कहानी, उपन्यास, नाटक, गीत सभी मर रहे हैं. रघुवंश छोटा हो गया है और बाणभट्ट के आखिरी पन्ने मिट गए हैं. विलियम बरोज़ के शब्द खोए हैं पैटी स्मिथ और बोउवी का संगीत खोखला हो चला है. न अकविता रही है, न तेवरी जीवित है. पंक्तियाँ मिट रही हैं, कोरे हो रहे हैं कागज़. तपती दोपहरी में लिखी पंक्तियों में एक एक कर मरते बदकिस्मतों को न देखने की क्षमता की कीमत तो चुकानी ही थी. कुछ नया आया, पुराने को मिटाने अब नया न जाने कब आएगा, आएगा भी या नहीं.

चाँद

जिस मकान में मैं रहता हूँ एक कमरा है उम्मीद लगाए बैठा है एक घर की भरा हुआ है सामान से जो सजाएंगे उस घर को पूर्व की ओर सागर है जिसपर सदा सूरज उगता रहता है पश्चिम में पर्वत हैं जिनके पीछे छुपता है वही सदा कमरे के बीचों बीच बहुत छोटी है परछाइयाँ. समय का अहसास होता है इस कोने से उस कोने तक पर समय कहीं बाहर टहलने गया है, यहाँ नहीं है. शाम वाले कोने में कभी बैठा टेपें और रसीदें जांचता हूँ, पर वह पल नहीं मिलता जिसमें चाँद को बेच खाया था बादलों में फैली उसकी दरारों समेत, बदले में मिला था दूर तक फैला नीला आकाश.

ख्वाब

भयावह फिल्मों में मेरी कोई भूमिका नहीं है आखिर माँ हूँ मैं। जलते हुए घरों से उनके नीचे छुपे तहखानों से और खून उगलती लाशों से बहुत दूर चली आई हूँ मैं। त्रासदियों की अगरबत्ती से मुँह फेर चुकी हूँ मैं, अब मेरे हिस्से में हैप्पिली एवर आफ्टर है। आखिर माँ हूँ मैं मृत्यु को हरा अमरत्व पाया है मैंने।

पिलपिला आतंक - 2

एक फिल्म देखी कल बाकी सब के बीच उस फिल्म में एक मॉडल थी. दुबली-पतली नया आजमाइशी ड्रग लेकर वह बड़ी खाऊ हो जाती है. न जाने क्या-क्या खाने के बाद अपना एक पैर और बाँया हाथ भी खा जाती है फिर अपनी दाहिनी आँख निकालकर चबा जाती है, पूरी आँख नहीं, केवल पुतली ही अपने खून में बैठी, खून में लथपथ, वहीँ सो जाती है. कुछ ऐसा ही था जब तुमने मुझसे फ़ोन पर बात करते हुए अपने हाथ को चूसना-काटना शुरू किया था हिक्की दी थी खुद को. मुझे लगा, अगर पुरुष खुद को चूस सकते तो प्रतिदिन दो बार तो चूसते ही. आँख भर आई इस विचार तक पहुँचते लगा कुछ खुशनुमां याद करूँ, थोडा खुश हों लूँ - यादों के बहाने. तुम्हारी याद आई, और याद आया तुम्हारा डर, या शायद घृणा तेल, वेसिलीन, क्रीम व चॉकलेट से, तुमपर छाया सार्त्र का पिलपिला आतंक पिलपिलाहट में खोती सतहों को पकड़ने की कोशिश ब्रश से पेंट की परतें उनपर सदा के लिए चढ़ाती तुम. सतहों के बीच कहीं कैद रह गई खुशनुमां यादें. मिली नहीं मुझे.