पहचान

एक उम्र हुई, जब में बीस का था
और था थोड़ा जुनूनी।
एक ख्वाब मिला था तब मुझे
मेरी आत्मा के खोल में जीता।
जब तक वह जिया
बाकी सब बेमायने था।
काम-काज, पूजा पाठ, सब।

आज भी कभी कभी
उस ख्वाब से मिलने जाता हूँ
और एक कुस्वप्न में खुद से कहता हूँ -
पीछे छूट जाएगा यह ख्वाब
इसके सारे दर्द, सारा पागलपन
यह धड़कती धमनी, आँख में उतरी खून की बूँद -
पर वह नहीं सुनता मेरी
पहचानता तक नहीं मुझे।

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