काँच का कनस्तर

अंधेरों में भटकते हुए
कभी कभी गिर जाता हूँ
उस दरवाज़े से जो खुलता है
सिर्फ मुझमें.

मुझे घेर लेते है कई पिशाच
दिखते नहीं वे, पर सुनाई देते है साफ़
जपते रहते है लगातार
बोलो-बोलो-बोलो.

पर मैं नहीं बोलता
चुपचाप चलता रहता हूँ
अपने काँच के कनस्तर में कैद
यह धुंधला-सा काँच जो
रौशनी तो रोकता है
पर शब्दों को नहीं.

शब्द खा कर जीते हैं ये
नरक के पहरेदार,
कुछ शब्द दे दो इन्हें
और ले चलेंगे ये
भीतर कहीं, और गहरा.

मेरी नाक में भरते है वे
काली सिगरेट के धुंए में घुली
डिटर्जेंट की गंध,
उस कमरे की गंध
जिसमें चारों ओर टंगे थे
आत्म-चित्र.
लाल आखों वाले राक्षस
सदा जागने वाले
एक तलवार से अलग कर देते है
विचारों और वस्तुओं के गोलार्द्ध.
धमनियां फूलती हैं, फटती हैं,
आँख में उतर आती है एक बूँद
गुलाबी कर देती है अन्धकार को.

गुलाबी,
जैसे अभी जन्में शिशु का चहरा
उस भ्रूण का जो मेरे दरवाज़े पर खड़ा मिलता है कभी
गुलाबी, उस पुलिंदे जैसी
जो लाइ थी मुझे दिखाने वह
कहा था हमारा है
पर मुझे कुछ याद न था,
उसने कहा तुम जैसी नाक है,
आखें हैं,
पर मुझे नहीं दिखीं.
उसने कहा कुछ देर में याद आजाएगा.
यहीं रहने दो.
नहीं आया, भूक आई.

फिर सवरे, तीन बजे
निकल पड़ी वह
पानी में छप छप करती
उस पार निकल गई वह
वहीँ कुछ लोटे पानी से नहाई
चांदनी में नहाई
और कपडे बदल कर चली गई
पीछे छोड़ गई कुछ
जिसके चारों ओर फेंस डाले मैं आज भी देख रहा हूँ
उसे फलते फूलते
सबकुछ अपने में समेटते.

गुलाबी रौशनी में
अश्वमेध का घोडा
तालाब के किनारे उगे
एक बूढ़े पेड़ के नीचे पड़ा था,
मैं नहीं जानता वह कौन सा पेड़ था.

उसकी गर्दन पर भिनभिना रहे थे
कुछ कीड़े, काले बिन्दुओं जैसे
मैंने छू कर देखा, सूंघ कर भी देखा
उसका पिलपिला खून ठीक वैसा ही था जैसा मेरी पट्टियों से झाँक रहा था.

कानों में भिनभिनाई मक्खियाँ, या शायद मधुमक्खियाँ.
मैं उसके साथ ही लेट गया
एक बांह उसपर टिकाए
कुछ देर में उस लाश ने

त्याग दिया.

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