अटका हुआ कुछ

एक अरसे पहले
जनवरी की एक दुपहरी
जब नर्म धूप बिछी थी हर और
पिज़्ज़ा हट में मिले थे हम।

तुम आईं थी ताला लगाकर
चाबियों का गुच्छा मुझे पकड़ा
कुछ आर्डर करने चली गई थीं।

बस एक महीना ही तो हुआ था हमें मिले
और सब बदल गया था इस बीच,
मैं बस रो ही पड़ा था - इन चाबियों पर अब मेरा हक़ ना होना था।

उस दोपहर जो आसूं अटक गए थे,
अब तक अटके पड़े हैं।

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