चूहा

यहाँ, जहाँ मैं रहता हूँ, कुछ साधारण से अधिक मोटे चूहें हैं.
दिन में तो कभी दिखाई नहीं पड़ते, पर रात को बरामदे में इधर से उधर भागते फिरते हैं.
कभी उनमें से किसीके खोदने कि आवाज़ मुझे जगा सुनाई देती है, तो छोटे वाला बल्ब जला कर उसे देखने लगता हूँ.
और उस लयबध खुदाई से मुझमें इतनी शिथिलता आ जाती है कि फिर उस बल्ब को बुझाता नहीं.
रात जब वही आवाज आई, तो बल्ब जलाए बिना में बाहर निकला,
चांदनी में मैंने देखा एक चूहा अपनी छोटे छोटे कटोरी जैसे पंजों से मेरे घर के नीचे खोद रहा है.
सुबह कि पहली किरण के साथ ही वह भाग खड़ा होगा, उसका काम भी तब तक ख़तम नहीं होगा,
शायद वह भी जानता है यह बात, पर फिरभी पूरी तन्मयता से खोद रहा है,
पंजे का एक भी वार खाली नहीं जाता उसका, पर सुबह तक के सारे वार जोड़कर भी काम उसका ख़तम नहीं होगा.
पंजों के बीच सर झुकाए वह लगा पड़ा था, और मेरे जूते के एक ही वार से काम तमाम हो गया.



(Franz Kafka कि एक अधूरी कहानी है - memoirs of the Kalda Railroad, उसके एक छोटे से हिस्से को चोरी कर लिया है यहाँ.)

टिप्पणियाँ

1. इतनी ईमानदारी बरतनी चाहिए ही.

2. बढ़िया है, जी.

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