सपनों की टोली

हर रात जो सपनों की टोली मुझसे मिलने आती थी
कल रात वह नहीं आई।
रात भर खिड़की पर बैठा खिचड़ी की थाली सा चाँद मुझे चिढ़ाता रहा।

कई बरसों पहले एक बुढिया मिली थी
सिर पर धरी टोकरी में अफसाने लादे,
उसकी कहानी में भी चाँद था
और था कुएँ में चमकता सूर्यनारायण।

बिस्तर पर पड़े मुझे बालों को सुलझाती उसकी उंगलियाँ याद आई,
और अफसानों के साथ परोसी वे पतली पतली रोटियां।

सुबह उठकर उसे ढूँढने निकला
पुराने पत्रों और टेपों में,
उस पर लिखा कुछ मिला
पर उसके अफ़साने नहीं,
एक रिकॉर्डिंग भी मिली
पर वह भी सेल्फ-कॉनशियस निकली।

अब कैसे लाऊं ख्वाबों को वापस?
कहाँ है वह खिड़की जिसमें
बस कुछ टुकड़े रहते हैं?

टिप्पणियाँ

ashmit.roy ने कहा…
सपनो की टोली में वोह आती है... मुझे अपने साथ होने का अहसास दिलाती है... कभी न छोड़ने का वादा करती है... फिर सुबह होती है.. और ये कमबख्त सूरज उसके मेरे सारे वादों को राख कर देता है..
Luv ने कहा…
कुछ रिश्ते बस रातों के होते हैं, उजालों से दूर कहीं छिपे-छिपे से. वह भी रोटी होगी कि सुबह होते ही चले जाना होगा - जलती धूप में.
Sp Sudhesh ने कहा…
खिचड़ी की थाली सा चाँद एक दम नई उपमा है । सपने की दुनिया का
एक अनुपम चित्र इस रचना में है । पर सपने तो सपने होते हैं । एक किशोर
भावुकता इस रचना में है ।
Luv ने कहा…
Thanks!

But don't make me RG!! :P
ख्वाब वापस आते हैं, बस मान चाहते हैं..
Luv ने कहा…
जी हाँ
वे वापस आते हैं
पागलों से, झुंड में
मुझे घेर लेते हैं
और खूब पीटते हैं।

फिर भी उनका जी नहीं भरता।

(हजारों ख्वाहिशें ऐसी...)

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