एक मुलाकात

फ़ोन की घंटी बजी
मैंने सोचा तुम कहोगी
और तंग ना करो मुझे
पर तुम बोली
कल मिलते हैं.
फिर मिले हम
मिलकर भी न मिले हम
वह क्रोध जो अब बन गया मेरे अस्तित्व का अटूट हिस्सा
एक सफ़ेद नक्काशीदार कुर्ते के पीछे कहीं छुप सा गया था
बस उसकी रूप रेखा दिख रही थी, सुन्दर.
उँगलियों के बीच से कुछ कह रहा था मैं
सिगरेट की गंध को छुपता
और तुम कह उठी कि नरवसा तो नहीं रहे तुम.
नहीं, अब भला क्यों? क्या बचा है?
कौन आएगा भला अब
सपनों को मेरे कुचलने?

बिखरे पड़े रहते हैं मेरे इर्द-गिर्द
फिसलकर उनपर मैं ही गिर पड़ता हूँ.
और कोई पास आए इससे पहले
दरवाज़ा भीतर से बंद भी कर लेता हूँ.

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