जाने नहीं दूँगा!

चलने से पहले
नंबर दिया तुमने
कहा - चालू हो जाएगा
न्यूयार्क पहुँचने पर.
मैं सोचता रह गया - क्यों?
कई बरस हुए
तुम्हें गए हुए - तुम भी जानती हो,
और रहा नहीं कुछ
बात करने को, तब से.

याद होगा तुम्हें
एक मेल आईड़ी बनाया था
सिर्फ मेरे लिए - nouvelle
पर कुछ रहा नहीं अब
तुम्हें बताने को
सिवाय इसके कि तुम जा चुकी हो,
पर यह तो तुम भी जानती हो,
शायद मैं कुछ ज्यादा जानता हूँ -
तो क्यों न तुम्हें बताऊँ?
बड़ा मुश्किल है यह
मैं कोई कवि भी नहीं.

प्रो. सोंधी ने कहा था एक बार - जब कोई देख नहीं रहा होता,
या जब मैं ऐसा सोचता हूँ,
काँच -सा बन जाता है मेरा चेहरा -
और सारी उथल-पुथल साफ़ दीख पड़ती है,
मुझे लगता है - बगूलों जैसी,
बगूले - अलग अलग रंग के
एक दूसरे से टकराते.

उतारना चाहता हूँ उन्हें
एक कागज़ पर,
एक चिट्ठी - ग्लिफों से भरी
जो बिना शब्दों के कह दे - तुम जा चुकी हो.

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कांच सा बन जाना.... यह थूजा के लक्षण हैं:)

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