संश्लेष

शाम ढले
अचानक
तेज़ प्रकाश उठा
पूरब की ओर से.

देखा
एक वृक्ष उग रहा था,
विशालकाय,
कई कई वर्षों का सफ़र
कुछ पलों में तय करता,
एक विशाल वृक्ष
चमकदार धुएँ का.
देखते ही देखते विलीन हो गया
नीले आसमान में,
बस एक लकीर-सी छुट गई पीछे
काली लकीर - दरार पड़ी हो जैसे,
जैसे एक दूसरी दुनिया टकरा गई हो
मेरी इस दुनिया से,
और मौल गई हो चूड़ी आसमान की. 
कुछ चौड़ी हुई दरार
दांयाँ बाएँ से छूट गया.
ओवरलैप ख़त्म .

फिर,
तुम और मैं
तीर्थयात्रा छोड़
अपनी अपनी एल्बम देखने लगे
आसुओं को रोकते.

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कई वर्षों का सफ़र एक सुनहरी शाम में तय कर दिया। सुंदर रचना के लिए बधाई॥

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