प्रेम - 4

प्रिय ब्लॉग,

बड़ा अजीब है
तुम्हें प्रिय कहना
तुम अभी लायक नहीं
ऐसे मानवीकरण के.

आज कल
देर रात तक भी
फ्री नहीं होती वह,
कहीं न कहीं
कोई न कोई
कंप्यूटर या नेटवर्क
ठीक करना ही पड़ता है.
मैंने कई बार कहा
मेरा कंप्यूटर ही ठप करदो -
तुम्हें तो पता ही है,
पहले भी बताया है.

उफ़,
तुम चैतन्य नहीं,
बंद करना होगा मुझे
तुमसे यूँ बतियाना.

वह भी आज कल
चुप-चुप रहने लगी है.
डर लगता है मुझे
उसके लिए.
आज कल उसकी नींद भी
पूरी हो नहीं पा रही,
कोई परिवार भी नहीं यहाँ उसका,
वह संयुक्त परिवार जिसमें पली-बढ़ी थी -
उसके बारे में कुछ बताती भी नहीं,
कभी कोई बचपन का दोस्त दिख जाए
तो दिन भर चिढ़ी रहती है,
कुछ पूछ लूँ गर उनके बारे में
उबल पड़ती है,
आम तौर पर संभाल लेता हूँ मैं,
पर आज कल छोटी -छोटी बात पर
गुस्सा हो जाती है और....

बस, गुस्सा थोड़ा तेज़ है उसका.
क्या करूँ मैं ?
प्यार भी बहुत है,
और सामीप्य भी भला लगता है,
हाँ, गुस्सैल है थोड़ी ,
तो क्या?
गुस्सा किसे नहीं आता?

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