आत्मा

आज भी
अचानक हवा चल पड़ती है
भर जाता है आँगन
पत्तों की सरसराहट से,
महक उठता है घर
उनकी गंध से.

बहुत कमज़ोर हो चला था
कभी भी गिर जाता
ढा देता घर की छत
काटना ही पड़ा उसे
साल भर पहले.

पर फिर भी
कभी कभी
जब हवा चलती है अचानक
बाहें फैलाए खड़ा हो जाता है वह
मेरे आँगन  में, 
और व्यापने लगती है 
उसके पत्तों की आदिम महक
घर भर  में.

टिप्पणियाँ

अपूर्व ने कहा…
कविता मे आत्मपलायन का दर्द भी ध्वनित होता है..और स्मृतिशेष चीजों की वंचना भी..चीजें जो एक एक कर हमारे जीवन से बाहर जाती रहती हैं...
Luv ने कहा…
@अपूर्व : Very well put bro. Thanks fr visiting th blog. Keep visiting.

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