घृणातीत
तो एक और मारा गया
वह जानता था , मारा जाएगा,
और मारा गया-
दिन के उजाले में
सब देख लें जिससे.
पर उसकी सड़ती लाश
आतंकित नहीं करती मुझे,
उस पर रेंगते कीड़ों से
घृणा नहीं होती मुझे.
न ही उसकी गायब होती खाल से
न ही पिघलती उसकी अंतड़ियों से .
नहीं, उसकी लाश से
घृणा नहीं होती मुझे.
और न ही उन ऊँचाई पर खड़े
पोशाकधारियों से ही
कोई घृणा होती है.
उनके ऊंचे स्वर-
इस मौत का स्वागत करते-
डराते नहीं मुझे.
इनसे भय खाकर
मैं कभी नहीं भागूँगा,
एक कदम भी
पीछे न लूँगा.
जब ये आग उगलते हैं
तब उठता धुआं पीकर
जो मदहोश हो चिल्लाती भीड़ है,
इन्हें घेरे खड़ी भीड़,
वह थर्रा देती है मुझे.
कांपने लगते हैं मेरे हाथ
और डिगने लगते हैं मेरे कदम.
इनकी सिली हुई आँखें
और झूमते हाथ-
थिरकते कदम
और कुचले पन्ने-
धर्म से प्यार
और सत्य से नफरत-
इनका नशा
और खुले मुंह-
इनकी भूख
और इनकी खुराक-
भर देती हैं मुझे
आतंक से.
कल तक
पहचाने तो जाते थे ये,
पर आज
कोने में बसी परछाइयों से निकल कर
ये मुझ जैसे ही लगते हैं,
मेरी माँ, मेरे दोस्तों जैसे,
मेरे साथ गपियाने
हर नुक्कड़ पर खड़े
हम-सफरों जैसे.
हाँ,
उस सड़ती लाश से
घृणा नहीं होती मुझे,
क्योंकि
हर मरनेवाले को
इतने करीब से देखने का मौका
मुझे मिलेगा नहीं.
यह भीड़,
शव-भक्षी कीड़ों की भीड़ है,
मानव का शरीर है
पर बिच्छू का डंक भी,
अब और कब्रें खोदनी नहीं पड़ेंगी
सब चटखारे लेकर खा जाएगी यह भीड़,
माथे पर इनके,
अभी दिख नहीं रहा पर,
माथे पर इनके
गुदा है,
सोच जहाँ से निकल गई है
और प्रोग्राम अन्दर बैठ गया है.
हाँ,
इस भीड़ से दूर
भाग जाना चाहता हूँ मैं,
और जब तक हो सके
इससे छुपा,
इस कोने में
चुपचाप बैठा रहूँगा मैं.
वह जानता था , मारा जाएगा,
और मारा गया-
दिन के उजाले में
सब देख लें जिससे.
पर उसकी सड़ती लाश
आतंकित नहीं करती मुझे,
उस पर रेंगते कीड़ों से
घृणा नहीं होती मुझे.
न ही उसकी गायब होती खाल से
न ही पिघलती उसकी अंतड़ियों से .
नहीं, उसकी लाश से
घृणा नहीं होती मुझे.
और न ही उन ऊँचाई पर खड़े
पोशाकधारियों से ही
कोई घृणा होती है.
उनके ऊंचे स्वर-
इस मौत का स्वागत करते-
डराते नहीं मुझे.
इनसे भय खाकर
मैं कभी नहीं भागूँगा,
एक कदम भी
पीछे न लूँगा.
जब ये आग उगलते हैं
तब उठता धुआं पीकर
जो मदहोश हो चिल्लाती भीड़ है,
इन्हें घेरे खड़ी भीड़,
वह थर्रा देती है मुझे.
कांपने लगते हैं मेरे हाथ
और डिगने लगते हैं मेरे कदम.
इनकी सिली हुई आँखें
और झूमते हाथ-
थिरकते कदम
और कुचले पन्ने-
धर्म से प्यार
और सत्य से नफरत-
इनका नशा
और खुले मुंह-
इनकी भूख
और इनकी खुराक-
भर देती हैं मुझे
आतंक से.
कल तक
पहचाने तो जाते थे ये,
पर आज
कोने में बसी परछाइयों से निकल कर
ये मुझ जैसे ही लगते हैं,
मेरी माँ, मेरे दोस्तों जैसे,
मेरे साथ गपियाने
हर नुक्कड़ पर खड़े
हम-सफरों जैसे.
हाँ,
उस सड़ती लाश से
घृणा नहीं होती मुझे,
क्योंकि
हर मरनेवाले को
इतने करीब से देखने का मौका
मुझे मिलेगा नहीं.
यह भीड़,
शव-भक्षी कीड़ों की भीड़ है,
मानव का शरीर है
पर बिच्छू का डंक भी,
अब और कब्रें खोदनी नहीं पड़ेंगी
सब चटखारे लेकर खा जाएगी यह भीड़,
माथे पर इनके,
अभी दिख नहीं रहा पर,
माथे पर इनके
गुदा है,
सोच जहाँ से निकल गई है
और प्रोग्राम अन्दर बैठ गया है.
हाँ,
इस भीड़ से दूर
भाग जाना चाहता हूँ मैं,
और जब तक हो सके
इससे छुपा,
इस कोने में
चुपचाप बैठा रहूँगा मैं.
टिप्पणियाँ
वह थर्रा देती है मुझे.
मोबोक्रेसी की यह देन अब ‘चटखारे लेते हुए’ बसें और कारें भी खा रही है... रोकने वाला है कोई????
@cmp uncle Too many people wonder why Plato's democracy leads to tyranny. A good nice blogpost on that from you?