पठार

खड़े थे सब-
गर्व में चूर
अपने अपने ढोल और बिगुल लिए,
गर्व में चूर,
इस पठार पर-
कोहरे से ढके,
अपने ही प्रकाश में डूबे.

तभी
एक पल को
छँट गया कोहरा,
और बंद हो गया वह बैंड,
अचंभित-
दुर्गम पर्वत-सा देख.

फिर,
अंधियारी गलियों में
टटोलने लगे हाथ,
कुछ जाने-पहचाने, कुछ अनजाने,
अगला ऊँचा पठार.
चमत्कार की तलाश,
इंतज़ार.

इंतज़ार,
धुएं में घिरा,
पाउडर से पुता,
ब्लीच किया,
नकारता
(ना, यह न था वह, कुछ और),
भटकता
(ना, यहाँ नहीं है वह, कहीं और),
तोड़ता फोड़ता
इंतज़ार.

इंतज़ार-
फिर दौड़े चेहरे में खून
फिर अपने गाल महसूस करें
अपनी ही उँगलियों का स्पर्श,
फिर बज उठे बिगुल,
फिर भूल जाएँ सब
उस दुर्गम पर्वत-से को.

पर अभी नहीं,
अभी तो खोज जारी है,
तलाश चल रही है,
कुछ और नहीं चाहिए इन्हें-
शांत बैठे हैं सब,
क्योंकि जारी है तोड़ फोड़
कहीं ओर.

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