बाहर से झांकता हूँ भीतर,
बहुत कोशिश करता हूँ समझने की
कि चल क्या रहा है वहाँ.

हमेशा चाहा मैंने
भीतर जाना,
पर दरबान कहते
जब जानते ही नहीं
चल क्या रहा है
कर क्या लोगे जाकर भीतर?
रहो यहीं अभी
समझो पहले,
फिर जाना भीतर.

अब भी
बाहर से झाकता हूँ भीतर,
बहुत कोशिश करता हूँ समझने की
कि चल क्या रहा है वहाँ.
कुछ पल्ले नहीं पड़ता,
और बीतती जाती है उमर
झुकती जाती है कमर
बदलते मौसमों के बीच.

जानता हूँ मैं
फिर कहेंगे ये
यह भी कोई उम्र है जाने की भीतर?
अब क्या फायदा, रहने ही दो.

पर फिर भी
झांकता हूँ भीतर
यहाँ बाहर से,
कुछ सुनता नहीं यहाँ,
दीखता भी बस छोटा-सा हिस्सा है.
और
कुछ पल्ले नहीं पड़ता.

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