सोफिया - 4

आँख खुली,
सुन रही थी टिक-टिक
पर देखी नहीं घडी,
अँधेरा घिर आया होगा अब तक.

प्रतिबिंब छोड़ती आवाज़ तुम्हारी
-शब्द तुम्हारे
याद तो नहीं अब-
टकरा रही अबतक,
तोड़ रही मेरे बुने जाल
-कंक्रीट के पुलों से मजबूत-
एक-एक कर,
तलाश में हैं
पैने कोनों वाली
कुछ यादों की.

पर
यादों ने मेरी
भर दिया हैं
जाने क्या-क्या
हर खाली स्थान में.

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