विजय ऐसी छानिये...

सपना कुछ लंबा खिंच गया
सुबह कुछ देर से उठा,
जल्दी से चाय बनाई
पी
तो मुँह जल गया.

कुछ धुआँ उड़ा
बस में चढा,
किसी ने कुछ टोका
पर
सपनों में खो गया.

स्टोर में
तुम्हारी चीख सुनी,
बाहर आया
सिर से बहता खून दिखा
हाथ लगाकर, रोकना चाहा
गर्म था खून,
बहता तुम्हारे सिर से.

वह कुछ पल
तुम्हारे अंतिम,
पर
कुछ याद नहीं
गर्माहट भरे खून के सिवाय.

अन्दर आ कर
ठंडा पानी पिया
और फिर से
मुँह जल गया.

टिप्पणियाँ

मुंह जलने के कई कारण होते हैं:)
Gurramkonda Neeraja ने कहा…
सपनों में खोना भी हकीकत है और मुँह जलाना भी.
मुँह कब जल जाए पता भी नहीं चलता.

कविता अच्छी लगी ....

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