बुलबुले गंध के


सीले हुए पानी की गंध
हावी हो रही थी
पहले से हावी नींद पर.

कार
बदल गई थी नाव में
काले पानी के बीच.
स्ट्रीटलैंप की रोशनी में,
कुछ बुलबुले गुनगुना रहे थे
अपनी अपनी थैलियों में.

काँच पर हाथ टिकाए
ध्यान से बाहर देखा,
उँगलियों पर ध्यान गया
छिली हुई थीं,
जाने कब-कैसे,
याद नहीं आ रहा था,

सिर में चुभ रही थी
काँच थामने को लगी रबड़.
पर सिर टिकाए ही
सोना चाहता था मैं.

गंध,
खाली शरीरों की गंध,
उठ रही थी हर ओर से
भर रही थी मेरे सिर में,
सीले हुए पानी में घुली.

उतार लिए हैं सारे तारे
और बुझा दिया है सूरज,
बस कुछ कुछ दूरियों पर
स्ट्रीटलैंप बचे हैं.
और बुलबुले...

टिप्पणियाँ

गंध-बिम्ब रचना आसान नहीं है.आपने रचे हैं. आप सचमुच कवि हैं जी!
Gurramkonda Neeraja ने कहा…
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