खड़े थे सब- गर्व में चूर अपने अपने ढोल और बिगुल लिए, गर्व में चूर, इस पठार पर- कोहरे से ढके, अपने ही प्रकाश में डूबे. तभी एक पल को छँट गया कोहरा, और बंद हो गया वह बैंड, अचंभित- दुर्गम पर्वत-सा देख. फिर, अंधियारी गलियों में टटोलने लगे हाथ, कुछ जाने-पहचाने, कुछ अनजाने, अगला ऊँचा पठार. चमत्कार की तलाश, इंतज़ार. इंतज़ार, धुएं में घिरा, पाउडर से पुता, ब्लीच किया, नकारता (ना, यह न था वह, कुछ और), भटकता (ना, यहाँ नहीं है वह, कहीं और), तोड़ता फोड़ता इंतज़ार. इंतज़ार- फिर दौड़े चेहरे में खून फिर अपने गाल महसूस करें अपनी ही उँगलियों का स्पर्श, फिर बज उठे बिगुल, फिर भूल जाएँ सब उस दुर्गम पर्वत-से को. पर अभी नहीं, अभी तो खोज जारी है, तलाश चल रही है, कुछ और नहीं चाहिए इन्हें- शांत बैठे हैं सब, क्योंकि जारी है तोड़ फोड़ कहीं ओर.