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अप्रैल, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दूसरा इडिपस

कुछ बच्चे देर से सीखते हैं चलना, कुछ देर से बोलना. वह देर तक चिपका रहा अपनी माँ से, जैसे ईडिपस पैदा हुआ हो बंदरों में भी. सब उड़ाते उसकी खिल्ली पर वह सह लेता चुपचाप. फिर एक दिन सिर्फ लाश रह गई उसके पंजों के बीच. कोई कहानी नहीं इसमें, बस दबे पाँव चली आई थी काली बदली. वह फिर भी हर जगह ले जाता माँ को अपने साथ, अब कोई हँसता नहीं था उसपर, सब कुछ फुसफुसाते दूर से निकल जाते - देखते तक नहीं उसे. जल्द ही वह भी गायब हो गया, समा गया अपनी लाश में.

हमारी खिड़की -2

याद है बारिशों का वह दिन सुमी - पत्ते पर रुकी वह अकेली बूँद. याद है सुमी उसमें प्रतिबिंबित होती वह खिड़की - बड़ी, नक्काशीदार - किसी और दीवार में बसी. याद है सुमी शंख से बना वह कंगन, और वह लाख वाला? याद हैं वे रंग बोतलों से छलक कर कैनवस पर उतरते तुम्हारी उँगलियों से होते, याद है उनका गाढ़ापन - जैसे कोई प्रतिमा हो उस सतह में कैद - अकेली - धुंध में घिरी.

हमारी खिड़की

याद है तुम्हें बारिशों का वह दिन, रुक-रुक कर, हर कुछ देर में बूँदें गिर पड़तीं , याद है खिड़की के बाहर पत्ते पर ठहरी वह इकलौती बूँद - और उसमें प्रतिबिंबित होती हमारी खिड़की. हमारी खिड़की- एक दूसरी दीवार में बसी- बड़ी, नक्काशीदार फ्रेंच विंडो. याद है उस दिन दो बजे लैब एग्ज़ाम  था, बारिश रुकते ही निकल चले थे हम, धुंध में खोई-सी रेल की पटरियों पर चलते उस ही खिड़की की बातें करतीं  आगे निकल गई थी तुम. याद है वह ट्रेन जो हमारे बीच से निकल गई थी, छींटे मारती हमपर. आज भी वह ट्रेन दिखी, आज भी छींटे उड़ा रही थी, आज भी बूँदें रुकी थी, पर उनमें कोई खिड़की न थी, या शायद धुंध में खो गई थी वे आँखें.

मेंड़

कुछ शाम जब, रोज़ की ही तरह, टहलने निकलता हूँ "सहायक" की निगरानी में, और पहुँच जाता हूँ ऊँची मेड़ तक उस पार दिख जाती है  कोई इक्का दुक्का गाडी आस्फाल्ट की सपाट सड़क पर दौड़ती, कभी कभी कुछ साइकिल सवार भी - सलेटी हवा को काटते. सलेटी हवा - हलकी नमकीन गंध लिए, कभी सरसराती, तो कभी सीटी बजाती, किसी बीच के पास होने का अहसास दिलाती. समुद्र - रहस्यमय ,  हमेशा ही आकर्षित करता मुझे - कभी दिल करता मेड को फांद कर फिर पहुँच जाऊं वहीँ, फिर से मिलूँ तुम सब से. पर फिर सुन जाती है  सरसराहट - तुम्हारी दी कई सौ रसीदों की.

धमाका

कूड़ा फेंकने आया था जब धमाका हुआ, अन्दर आकर देखा जल्दी से आग बुझाई - जितनी हो सकी, सोचा - अगर मैं भीतर होता तब - ... कुछ देर पहले ही गायब हो चुका  था मैं - वहाँ से. आगे बढ़ते हुए सुन पा रहा था मैं अपने शिकार के विचार, भविष्य की कोख से मुझ तक पहुँचते - कुछ ही पलों में उनके हो जाएँगे.

प्रेम - 4

प्रिय ब्लॉग, बड़ा अजीब है तुम्हें प्रिय कहना तुम अभी लायक नहीं ऐसे मानवीकरण के. आज कल देर रात तक भी फ्री नहीं होती वह, कहीं न कहीं कोई न कोई कंप्यूटर या नेटवर्क ठीक करना ही पड़ता है. मैंने कई बार कहा मेरा कंप्यूटर ही ठप करदो - तुम्हें तो पता ही है, पहले भी बताया है. उफ़, तुम चैतन्य नहीं, बंद करना होगा मुझे तुमसे यूँ बतियाना. वह भी आज कल चुप-चुप रहने लगी है. डर लगता है मुझे उसके लिए. आज कल उसकी नींद भी पूरी हो नहीं पा रही, कोई परिवार भी नहीं यहाँ उसका, वह संयुक्त परिवार जिसमें पली-बढ़ी थी - उसके बारे में कुछ बताती भी नहीं, कभी कोई बचपन का दोस्त दिख जाए तो दिन भर चिढ़ी रहती है, कुछ पूछ लूँ गर उनके बारे में उबल पड़ती है, आम तौर पर संभाल लेता हूँ मैं, पर आज कल छोटी -छोटी बात पर गुस्सा हो जाती है और.... बस, गुस्सा थोड़ा तेज़ है उसका. क्या करूँ मैं ? प्यार भी बहुत है, और सामीप्य भी भला लगता है, हाँ, गुस्सैल है थोड़ी , तो क्या? गुस्सा किसे नहीं आता?

आप्लावन टैंक - 2

पार्किंग लाट से सटा वह एक कमरा, चारों ओर से घूरते तुम्हारे आत्म चित्र, सफ़ेद सिगरेट के धुंए में घुली डिटर्जेंट की गंध, उस दिन ले आया था एक बोतल भर धूप वहां - तिलमिला उठी थीं तुम. गलत समय चुन लिया था मैंने, जब लाल आँखों वाले राक्षस दूर भगा देते हैं निद्रा देवी को, जब एक तलवार अलग कर देती है विचारों के गोलार्द्ध को वस्तुओं के गोलार्द्ध से, जब दोनों आँखें मिलकर किनारे तोड़ देती हैं, पर्दों से ढके तुम्हारे उस कमरे में फिर न आने दिया कभी. अ, इतना तो बता दो कि अब कैसी गंध है?

राज़

सब के पास होता एक ऐसा राज़ जिसे बाँटकर वे बना लेते हैं ख़ास किसी भी मित्र को. देखो तो ज़रा सुमी तुम्हें कोई दीखता है क्या ऐसा राज़ मेरे आस-पास - वादा रहा किसी और को नहीं बताऊंगा मैं अपना वह राज़.