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विजया ऐसी छानिए

काले आकाश में मकड़ी के जाल सी फैली चांदनी कुछ ऐसी लग रही थी जैसे दरारें उभर आईं हों दो दुनियाओं के बीच. धीरे धीरे विजया छन रही थी उस दुनिया से इस दुनिया में. सफ़ेद पानी सी हवा बह रही थी कागज़ के कुछ टुकडे थे भँवरों में कैद. जाने किसके इंतज़ार में गोल गोल घूम रहे थे. दवाइयों के पर्चे थे, बियर के कैन और सिगरेट के बट भी. उसने पूछा, मैं बहुत दर्द तो नहीं दे रही तुम्हें, आँखों के पीछे एक गर्माहट-सी उठीं फ़िल्टर तक पहुँच चुकी सिगरेट का एक गहरा कश खींचा और होंठ हलके-से जल उठे जीभ के छाले भी तमतमा उठे. रोक ही लिया सबने मिलकर आँसुओं को. (कभी आखों को निचोड़ो तो एक बूँद भी नहीं मिलती, कभी गला न भर आए यह डर सताता हैं.) नहीं, आज नहीं, अब नहीं, यह तो बड़ी पुरानी बात हो गई. (शाम के एक कोने में टेपों से घिरा बैठा था, जाने कितनी सुबहें इनमें उतरते देखी थीं उसने, जाने कितनी रातें इन्हें जांचते काटी थीं, जाने कब इन्हें सुनते दुगुनी तेज़ी से बढ़ने लगा, बुढ़ाने लगा. जाने कैसे एक हफ्ते पुराना सन्देश एक साल पुराना हो गया. आज, शाम के इस कोने में, अहसास हुआ -

βλεπομεν γαρ αρτι δι εσοπτρου εν αινιγματι

मेरी खिड़की से झांकते आसमान में अब भी कभी-कभी चाँद आ जाता है. लेकिन अफसानों की टोकरी लिए अब उससे कोई उतरता नहीं. बोतल-भर धूप अभी भी कोने में रखी है पर अब मकड़ी के जालों से घिरी. खिड़की के नीचे आज भी वही झील है हरी काई से ढकी, और आस-पास के पेड़ों पर सफ़ेद परियाँ टंगी हैं, अंधी, चिमगादड़ों सी.

अशिव

अशिव पर शिव की विजय का प्रारंभ। बड़ा ही लम्बा नाम था तुम्हारी पेंटिंग का। मेरी दीवार पर आज भी सजी है वह। देखने वाले पूछते हैं, क्यों इतनी भयानक शैतानी तस्वीर लगा रखी है वहाँ? कहता हूँ उनसे थोडा सब्र करो अभी कुछ देर में बहुत गर्माहट फूट पड़ेगी इसमें।

आवाजें

रात की सातवी सिगरेट के आखिरी पुल ने अभी बस धुआँ भरा ही था कि सुनाई पड़ने लगीं कहीं दूर से आती वे आवाजें. बारिश में दौड़ती लहरों के शोर में वे आवाजें कुछ दब सी गई थीं. दूर सड़क के किनारे लगे बल्ब तैरते दिख रहे  कह रहे थे मुझसे सब मेरा भ्रम है बस.   कल रात फिर से आईं वे आवाजें, बड़ी दूर से सूख गया मेरा मुँह, पर शायद सिगरेट के धुएँ से. कुछ घंटे भर बाद, पास आने लगी वे आवाजें अब तक तो एक ही लगी थी, पर अब लगा कई हैं और सूरज उगने से पहले चुप भी हो गई.   कुछ था उन आवाजों में, कुछ जो कह रहा था मुझे चढ़ जाओ बालकनी में लगी वर्कबेंच पर और उड़ चलो उनसे मिलने.   आज रात फिर आया उनका बुलावा, और मैं भाग आया अपने कमरे में बालकनी से दूर, बंद खिडकियों के बीच, अब भी टकरा रहीं हैं वे आवाजें खिडकियों के काँच से, मैं बैठा हूँ, मुँह फेरे.

हे राम

फिर से करवा रहे हैं उन्हें याद वे समर जो अभी शेष हैं, एक बार फिर कर रहे हैं उन्हें तैनात, शायद भूल गए हैं वे पिछले संग्राम - जिनमें खून बरसा था गहरी नींद में सोए शहरों पर।

रौशनी

सूरज से रौशनी चुरा कर जल रहा है आज रात बादल वैसी ही आग दिल में भी है समय आ गया है इस आग को उस आग से मिलाने का खुद को जला कर राख से आकाश भरने का और दुनिया को लम्बी धुंध में डुबोने का।

सोफ़िया - 14

वह कहती है उसके कारण आज मैं ऐसा हूँ, कि उसे देने के बाद मेरे पास कुछ बचा नहीं. और सोचती है उसे बचाए रखने को एक दम-घोटूं अपराधबोध से मैं फिर वैसा ही बन जाऊँगा. पर जानता हूँ मैं इतना भी कमज़ोर नहीं था मेरा काम. कोई भी अपराधबोध अब उसपर हावी नहीं होगा, नहीं हो सकता. उसने हरी आँखों वाले शैतान को दफनाया नहीं था बस उसे नकार दिया था. अब सारे शैतान उसे बस देख भर सकते हैं बाँध नहीं सकते. 

वो एक दिन एक अजनबी को...

कुछ पुर्जें हैं ख़त के डायरी में कैद, वक़्त आ गया है उन्हें आज़ाद करने का। तेरी कहानी जो सिमटी पड़ी थी उनमें आधे आकाश में तैरेगी अब। अंगूठी, बाँहों के कंगन और सात फेरों समेत वह जो जेवर थे दिल में संभालें वे तो कबके डूब गए, गंगा में बहाते ही।

सपनों की टोली

हर रात जो सपनों की टोली मुझसे मिलने आती थी कल रात वह नहीं आई। रात भर खिड़की पर बैठा खिचड़ी की थाली सा चाँद मुझे चिढ़ाता रहा। कई बरसों पहले एक बुढिया मिली थी सिर पर धरी टोकरी में अफसाने लादे, उसकी कहानी में भी चाँद था और था कुएँ में चमकता सूर्यनारायण। बिस्तर पर पड़े मुझे बालों को सुलझाती उसकी उंगलियाँ याद आई, और अफसानों के साथ परोसी वे पतली पतली रोटियां। सुबह उठकर उसे ढूँढने निकला पुराने पत्रों और टेपों में, उस पर लिखा कुछ मिला पर उसके अफ़साने नहीं, एक रिकॉर्डिंग भी मिली पर वह भी सेल्फ-कॉनशियस निकली। अब कैसे लाऊं ख्वाबों को वापस? कहाँ है वह खिड़की जिसमें बस कुछ टुकड़े रहते हैं?