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विरूपण

प्रेम, हर दोपहर अब अकेले नहीं करती थी भोजन, ना ही छुट्टियाँ अब अकेले बितती थीं- कभी माया मेमसाब देखते, तो कभी हरिया हरक्यूलीज़ से बातें करते. पास बैठते, और तुम्हारी पूंछ घेर लेती मुझे. प्रेम, साथ लेटते- जकड़ लेती तुम्हारी पूंछ, उँगलियाँ बालों में, गर्दन पर और नीचे सहलाती पूंछ. पर, अपने कथित विरूपण से रूप की ओर बढ़ चली तुम- भय दूर कर, हिस्सा बनने- जुड़ने- सब से बड़े समुदाय से, भीड़ से. बस थोड़ी-सी चीर-फाड़. फिर भी- आज भी अकेली हो कटी हुई-सी. और वह भी नहीं हो प्रेम था जिससे.

द्वन्द्वातीत

पंक्तियाँ ख़तम होते ही बदल गए उसके भाव, -उसका चेहरा, उसकी आँखें, अटकी हुई साँस- सब पूछ रहे थे सही तो किया न? यही था न मेरा किरदार? ... दूरदर्शन चलता रहा और मैं सोफे पर ही सो गया. हर शैली में तुमसे प्रेम कर भी तृप्त नहीं हुआ मन. फ़र्ज़ अदाई-भर कर रही थीं तुम. तुम्हारी नाभि बड़ी करी पेचकश से, तब कुछ संतोष हुआ प्रेम कर. नहा-धोकर आया तड़पते हुए तुम्हें देखा न गया. गीला तौलिया तुम्हारे गले पर लपेटा और तुम्हारी आखरी साँस के साथ मेरी नींद भी टूट गई. ... अभय घूम रहा था उत्तराधुनिक दिल्ली में, जब बाहर निकला इतनी गाढ़ी बह रही थी हवा एलिस होती तो पी ही लेती. कभी बहुत बड़ा था कचरे का यह ढेर, अब बढ़ा रहा है अपनी सीमाएं किसी पुराने राज्य की तरह. तीन दिन तो लग ही जाते है लाश के मिलने में, गंध आती भी है तो कुत्ते की होगी सोच कोई देखता नहीं. ...

विश्वास

एक उपहार हर वर्ष लाता था जाड़ा बाबा. अच्छा लगता था मुझे तुम भी मुस्कुराती मुझे देख कहती खुश है वह मुझसे. पर माँ, उसमें विश्वास न था मुझे, तुममें था

सब ओर भूरा

उतर आई नींद साथ ही शांति भी, नशीली-सी थकन लिए. मौसम बदलता नहीं आज कल हमेशा अनिश्चित. सब ओर भूरा है नज़ारा धूल भरा सा. बिन बुलाए ही आ बैठा है एक चूहा किसी अँधेरे कोने में- दिख नहीं रहा ना ही चुप हो रहा है. खरगोश होता तो शायद...