संदेश

अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विजय ऐसी छानिये...

सपना कुछ लंबा खिंच गया सुबह कुछ देर से उठा, जल्दी से चाय बनाई पी तो मुँह जल गया. कुछ धुआँ उड़ा बस में चढा, किसी ने कुछ टोका पर सपनों में खो गया. स्टोर में तुम्हारी चीख सुनी, बाहर आया सिर से बहता खून दिखा हाथ लगाकर, रोकना चाहा गर्म था खून, बहता तुम्हारे सिर से. वह कुछ पल तुम्हारे अंतिम, पर कुछ याद नहीं गर्माहट भरे खून के सिवाय. अन्दर आ कर ठंडा पानी पिया और फिर से मुँह जल गया.

सर्द

नसों में बसा बर्फ का मौसम, धीरे धीरे गला रहा हैं, नाखूनों की पपडी बन रही हैं, और दाढें झड़ रही हैं, पर फिर भी उबटन के कारण दूर कोई गया नहीं. सूरज की पूँछ पकड़ दूर खींच ले जाओ, मौसम थोड़ा बदलेगा तब शायद सबको बदल सकूँ.

mash up - 1

बड़े प्यार से पाला पोसा, बेकार के झगडों से हमेशा बचाया, मेरा जो कुछ था सब दे दिया. पर उस दिन कुछ मर गया हमारे बीच. और अब दूर की नहीं जाती धीमे धीमे गलती हुई सड़ती हुई, फूलों के नीचे दुर्गन्ध से भरती, रूई के पीछे कीडों से खाई जाती. उस दिन से, बहुत शोर करने लगा, मैं. चलना-फिरना इस के बोझ तले मुश्किल हो रहा है, सोचता था तुम्हारा ध्यान उस ओर न जाएगा. पर, चार दिन बाद, तुमने कहा - कुछ मर गया है हमारे बीच पर फिर भी बने रहना चाहती हूँ उसकी रक्षक. और मैं, सोचता रह गया क्यों उठाए फिर रहा था, यह लाश!! Cut up wasn't giving anything even approaching meaningful, so mash up :D

चिराग

-जाने क्यों हिल तक नहीं पाई मैं, जब सवार हो रहे थे मुझपर- -मैं जानता हूँ क्यों. दवा जो पिलाई थी तुम्हें. अब हमारा अपना बच्चा होगा. सोचो तो ज़रा तीन साल बाद!- फडफडा उठे मेरे होठ, डबडबा उठी आँखें. तीन साल धोखे में रखा मुझे! दोषी खुदको ही ठहराती रही मैं अकारण! तीन महीनों तक माँ के साथ रहकर कुछ हिम्मत आई बाहर आने की. और अब...

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तुम मेज़ के उस ओर से बता रही थी कैसे बढती जा रही हैं हमारे बीच दूरियां. पर मैं शोक मनाने तो आया नहीं था यहाँ.

तुम और तुम्हारी याद

तेज़ बहुत तेज़ चला रहा था बाईक. बंधा था उसपर एक बड़ा भरी-भरकम लट्ठा, लट्ठा जिसके एक छोर पर एक बड़ी-सी आँख खुली थी. इस वजन के बाद भी चला रहा था इतनी तेज़ डर रहा था मैं टकरा जायेगा कहीं. तभी एक और बाईक पर छोटी-सी दिखती शायद तुम, सामने आगई, धीमी होगई रफ्तार कुछ तसल्ली हुई मुझे. कुछ और देर में सामने आगई एक कार दो बच्चे थे उसमें सवार और धीमी होगई रफ़्तार. ---------------- तब से लड़ते रहते हैं हमेशा तुम और तुम्हारी यादें, यादें- जो उड़ना चाहती थी, तेज़ बहुत तेज़.

चीख

आsss... आsss... आsss... सोचेंगे मज़ाक उड़ा रहे हो. कौन? पाठक! और कौन? चीखना है मुझे! लिखो क्यों चीख नहीं सकते. आsss... उफ़! लिखो क्यों चाहते हो चीखना. देखना चाहता हूँ गर्म खून बहता हुआ अपने सिर से, पर ऐसा कर नहीं सकता इसीलिए... आsss... आsss... आsss...

विशुद्ध पीड़ा

मेज़ के उस पार नकसीर फूट पड़ी, अचानक मुस्कुराकर तुमने कहा- गुनगुना है खून. जानता हूँ गलत लगा तुम्हें उदास दिखना नकसीर के साथ. पर पारदर्शी हो चला था तुम्हारा चेहरा. उस पल सारे रिसीवर जाम होगए विशुद्ध पीड़ा से.

मृतक प्रेम

बड़े प्यार से पाला पोसा, बेकार के झगडों से हमेशा बचाया, मेरा जो कुछ था सब दे दिया. और अब दूर की नहीं जाती धीमे धीमे गलती हुई सड़ती हुई, फूलों के नीचे दुर्गन्ध से भरती, रूई के पीछे कीडों से खाई जाती यह लाश. चलना-फिरना इस के बोझ तले मुश्किल हो रहा है, पर फिर भी बने रहना चाहती हूँ उसकी रक्षक.

नारकीय

चित्र
पक्षी सुबह उठते, चहचहाते, दिन भर मेहनत करते, शाम तक थक कर ख़ुशी से गुनगुना कर सो जाते. पर यह देखा न गया हमसे, हर जगह बोतलों के ढक्कन, प्लास्टिक के लाईटर, पन्नियों की भीड़ लगादी. अब वे पक्षी जहाँ भी जो भी खाएँ और फिर सोएँ, फिर गाने को उठते नहीं. **Photograph from a series by Chris Jordan

शॉट

वह दबा था मिट्टी में कमर तक. अकड़े हुए हाथ से आँखें ढकी थी उसकी. वाह! कितना शानदार शॉट था! पर माँ को मैं अजीब लगा, बुरा भी, उसे देखता हुआ. डिब्बे में बैठे स्केल पर आराम फरमाते मेरे छोटे-से ब्लू के अलावा कोई नहीं मुस्कुराया उस लाश पर मेरे साथ.

सुमी से

तुम्हारे बारे में! शिकायत है तुम्हें नहीं लिखता कभी तुम्हारे बारे में. मैं क्या करूँ जानता ही नहीं कैसे लिखूँ गरमाहट जो मुझमें अंकुरित करती हो, कैसे लिखूँ अशून्यता जहाँ कोई अंतर आता नहीं. और नहीं जानता कैसे लिखूँ कुछ ऐसा जिसमें कोई अंश न हो तुम्हारा. जो न चाहता हो तुम्हारी प्रतिक्रिया.

खामोशियाँ

कभी हमें घेरे खड़ी थीं आज हमारे बीच भर गई हैं खामोशियाँ. शब्द पहले शूल बने फिर शोर बने फिर हो गए अर्थ-हीन. कुछ पूछते नहीं कुछ कहते नहीं पर कुछ सुनना भी चाहते नहीं घूरती रहती हैं हमें खामोशियाँ, कहती हैं इसी जुबाँ से हमें चौंकाना चाहते थे? चाहते थे, हम पूछें कौन-सी जुबाँ है?

जानना

आमंत्रित किया था तुम्हें झाँक कर देखने को मेरे कुस्वप्नों में. पर कहाँ था इतना समय? तो ऐसा क्या है जो प्यार करते हो मुझसे? मैं हूँ कौन गंध और आकार के पीछे, प्याज की परतों के पीछे, जानने को कितना समय लगेगा जानते हो? जान रहे हो?

वहीँ

उसी कमरे में बैठा आज फिर काँच फोड़ रहा हूँ, पर अब और यहाँ नहीं रहतीं तुम. आओ देखो मुझे बिखरते हुए, टूटते हुए. अच्छा लगेगा तुम्हें. यह भयावह कहानियों का संग्रह.

तत् सवितुर्वरेण्यम

हे सूर्य यहाँ, मेरे कमरे में आओ कुछ गहरा है अँधेरा यहाँ. जम के बैठ गया है यहीं बर्फवाला मौसम. चारों ओर बर्फ के शीशों में दीखते हैं विकृत प्रतिबिम्ब सम्पाति के परों के. (जाने कहाँ है वह)

स्विच

वह रहा मैं, उसने वादे किए, बालों को रहने दिया अपनी-अपनी खालों में, और भर दी मेरी जगह. खुश भी है बहुत वह वादों में दम है प्यार सच्चा है. पर हम दोनों ही जानते नहीं हैं कहाँ है स्विच. ok, lets see, starting today i am planning to write one "poem" each day.