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कीचड में नन्ही परी

मम्मी लौटी थीं कहीं से बेंच पर बैठे, पापा इंतज़ार कर रहे थे कीचड़ में खेल रही थी एक नन्ही-सी परी. कल यह भी बन सकती है एक नंबर ४, ५, ६, १०, १२ या अब तक दिखी सब में सबसे भयावह, the worst, क्योंकि यह ५ साल की थी - १८ साल की चिंकी नहीं, क्योंकि इसमें बोतल डाली गई थी २३ की उम्र में सरिया नहीं. क्योंकि बाकी सब तो अब रोज-मराह की बात हो गईं हैं, शायद आम बात भी. और जिम्मेदार हैं कई - विदेशी, धार्मिक, राजनैतिक हमारी पुलिस, लापरवाह माँ-बाप, पितृसत्ता. बस एक वही ज़िम्मेदार नहीं, वह बेचारा तो उपज है हमारे समाज की, बस वही कर रहा है जो हमने सिखाया है उसे, घुटनों पर रेंगता, उठ भी नहीं सकता, pressure cooker हैं, फटने को तैयार, हल्का-सा धक्का, और फट पड़ा बेचारा.

प्रतिबिम्ब

आइनों के जाल में एक कैदी है सच ढेर-से प्रतिबिम्ब उसके तैर रहे हैं तरंगों पर दौड़ रहे हैं तारों पर उतर रहे हैं शब्दों में ढल रहे हैं नारों में। पर वह खुद कहीं छिपा बैठा है और मैं उसके प्रतिबिम्बों से उसे ढक देना चाहता हूँ वरना वह घुस पड़ेगा मेरे घर-पड़ोस में।

दफ़न

बस कल ही तो वह दौड़ी दौड़ी आई थी पहला दाँत टूटा था उसका और दोस्तों के कहने पर मिट्टी में दबा आई थी। और आज उसकी आँखों में एक दहशत की परछाईं है और वे कहते हैं दफ़ना आऊं उसे कहीं दूर की मिट्टी में चुपचाप।

लोरी

उसकी गोद में सिर रखे लड़ रहा था उससे अभी तुम लड़की ही हो पर वो न मानी। फिर अचानक फूट पड़ी उसके होठों से एक पुरानी लोरी जो न सुनी थी मैंने, बरसों में जो घर में, खेतों में काम करती तगड़ी औरतें गाती थीं अपने होने का एहसास दिलाती।

नया सवेरा - ३

उग आया फिर से भुरभुरा सा चाँद काले आसमान में। पर उगा नहीं फिर भी हरे पानी वाली झील में उसका प्रतिबिम्ब। हाँ, कंकर फैंको तो एक चमक उठती हैं काली बूंदों में।

वह

मक्खियाँ नहीं बैठती उसपर बड़ी खास है वह। इतनी स्वच्छ की गंगा भी उसे छूकर पवित्र होती है। उसके कटे केशों से हूर अपने विग बनाती है, और उसके फैट से अपने नहाने का साबुन। उसी साबुन से फाइट क्लब का बम बना था।

फ़ना

छिल गए हैं घुटने तुम्हारे फिर भी तुम खुश हो मानते हो कहना बिना  कहे कुछ करते नहीं। देखते हो, बदलता ईमान अपने खुदा का पर फिर भी काटते नहीं उसका हाथ चबाते नहीं उसकी उंगलियाँ बस मुँड़ा लेते हो सारे बाल रहने को साफ़ उसके दरबार में।

रेलगाड़ी

रास्ते का पता नहीं ड्राइवर भी जाने है या नहीं पर चले जा रहें हैं सब एक साथ. बस पता इतना है ये डिब्बा अपना नहीं.

बड़ा होना

मस्ती में झूमता गधे पर सवार एक मुस्टंडा अभी चक्कर लगा गया मेरे मोहल्ले का। आज इन गलियों से दौड़कर निकलता हूँ मैं, पर कभी मैं भी खुद में खोया मस्ती में चलता था। आज कोशिश की मैंने फिर वैसे पल जीने की पर भय के सिवा कुछ हाथ न लगा।
बिजली कड़क रही है यहाँ, दूर बारिश भी हुई है। मैं अभी तक भीगा नहीं।

Horror of Slime/ पिलपिला आतंक/ एकरूप

मैं चाहता था मालिश करना तेल से, वेसिलीन से, क्रीम से, चॉकलेट से, पर उसे कभी नहीं भाया. जैसे सार्त्र का पिलपिला आतंक छाया रहता हो उसपर. पिलपिलाहट को छूकर मानो वह भी पिलपिली हो जाती, भीतर की पिलपिलाहट बाहर की पिलपिलाहट से जुड़ जाती, मिल जाती, सारी सतहें खो जाती, और सतहों के बिना उसका ब्रश कहाँ चलता? कहाँ ले जाता? दरारों के साथ भी सतहें ज़रूरी हैं. क़ैद रखने को उस पिलपीले साँप को.

डर/ दीवार

नहीं, मना कभी नहीं किया बस एक डर बिठा दिया मुझ में जब जब कुछ कहूँ, जो तुम्हें पसंद न हो तब तब तुम बंद कर दोगे मुझसे बात करना और फिर मुझे देनी होगी सफाई अपनी ग़लती कि. ... बस थोड़ा-सा समय ही तो माँगा था मैंने आत्मसात करने के लिए तुम्हारे शब्द बस उतनी ही देर में खड़ी कर ली तुमने ये दीवारें. और तुम्हारी देखा देखी मैंने भी वही किया.   बस दरवाज़ा बनाना भूल गया. 

रात

हर रात १२ से ३ के बीच कुत्तों की एक टोली लगातार भौंकती रहती है मेरे घर के सामने कहीं. बालकनी में बैठे मुझे बस उनका भौंकना सुनाई पड़ता है दिखाई कोई नहीं देता सिवाए आती जाती गाड़ियों के. दिन में वहां कुछ लड़के वॉलीबॉल खेलते हैं रात को अंधेरा पसर कर बैठ जाता है अपनी गोद में कुत्तों की टोली को छुपाए. रोज़ यही होता है और सूरज चमकता है इसी मैदान पर विकल्पों के आभाव में. (मर्फी)

Every Day Is Exactly The Same

WhatsApp पर भेजी कविता पढ़ उसने कहा अच्छी है पर लाइफ गोज ऑन. कुछ ऐसा लिखों जिससे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिले. पर लिखूं कैसे जब मेरे कमरे की दीवार पर टंगी घड़ी कब से बंद पड़ी है? हर दिन बस पिछले दिन जैसा, और हर रात उसी टोली का शोर? काश मैं घर में नहीं रेल के किसी डिब्बे में रहता.

सोफिया - १०

ऐसा नहीं है कि अब बदल गया हूँ मैं मैं तो ऐसा ही था तुम्हारे आने से पहले भी बस जब तुम थीं यहाँ, एक दरवाज़ा खुल गया था मेरे और दुनिया के बीच। अब वह फिर बंद है।

क्रोकोडाइल

राजकमल चौधरी का भूखा क्रोकोडाइल मेरी बालकनी में चढ़ पंजे मार रहा है बंद दरवाज़े पर और मैं बेडरूम कि खिड़की से उसे देख रही हूँ तटस्थ।

प्यार

तुम्हारे होटों पे रुके अनकहे शब्द  शब्दों को थामे तुम्हारे लाल होंठ.   प्यार है तुम्हारे सुन्दर होटों कि याद.

दरवाज़ा

अनजाने ही, या शायद जानभूझ कर, बंद करली तुमने वह खिड़की जिससे दीखती थी तारों से उलटी टंगी बारिशें और बूंदों में प्रतिबिंबित सूर्य. गीली घास में खेलते बच्चे और नन्हीं-सी फुदकती गेंद. मैं था उस खिड़की का खुला दरवाज़ा.

इंतज़ार

कल्पना की थी मैंने तड़तडाती गोलियों के बाद लम्बे सन्नाटे की. सहमी, चुप आखों और मुर्दा शहर की. पर बज रहे थे सबके फोन आ रहे थे ढेर से मैसेज फटकार लगाते – हम सब हैं चिंतित और तुम्हें इतनी फुर्सत नहीं कि एक कॉल कर दो.

एक मुलाकात

फ़ोन की घंटी बजी मैंने सोचा तुम कहोगी और तंग ना करो मुझे पर तुम बोली कल मिलते हैं. फिर मिले हम मिलकर भी न मिले हम वह क्रोध जो अब बन गया मेरे अस्तित्व का अटूट हिस्सा एक सफ़ेद नक्काशीदार कुर्ते के पीछे कहीं छुप सा गया था बस उसकी रूप रेखा दिख रही थी, सुन्दर. उँगलियों के बीच से कुछ कह रहा था मैं सिगरेट की गंध को छुपता और तुम कह उठी कि नरवसा तो नहीं रहे तुम. नहीं, अब भला क्यों? क्या बचा है? कौन आएगा भला अब सपनों को मेरे कुचलने? बिखरे पड़े रहते हैं मेरे इर्द-गिर्द फिसलकर उनपर मैं ही गिर पड़ता हूँ. और कोई पास आए इससे पहले दरवाज़ा भीतर से बंद भी कर लेता हूँ.

सिरे

धागे खिंचें तन गए टूटे उड़ चले खुद से लिपटते उलझते अपने सिरों कि ओर. आज भी चुभता है वह टूटा सिरा.