उन दो कंगनों को खिड़की से भीतर प्रवेश करने के लिए कह दीजिए. 'दीवार में एक खिड़की थी' में तो लोग दरवाजे से नहीं बल्की खिड़की से ही आना-जाना करते हैं. और, उसी खिड़की से घर-बाहर के लोग नई दुनिया में प्रवेश करते हैं.
Maybe All This -- Wislawa Szymborska शायद यह सब किसी लैब में हो रहा है? जहाँ दिन में एक बल्ब जलता है और रात को कई? शायद हम सब किसी प्रयोग की उपज हैं? एक से दूसरी शीशी में उलटे जाते टेस्टट्यूबों में घुमाए जाते, सिर्फ आखों से ही नहीं परखे जाते पर एक-एक कर उठाए जाते चिमटे के मुँह से? या शायद कोई हस्तक्षेप नहीं करता? सारे बदलाव आप ही होते हैं सुनियोजित ढंग से? ग्राफ बनता जाता है अनुमान अनुसार? शायद अब तक हममें कुछ दिलचस्प नहीं? आमतौर पर हम पर नज़र टिकती नहीं? बस बड़े युद्धों के लिए, या जब हम अपने हिस्से की ज़मीन से ऊंचे उठते हैं, या धरती के एक कोने से दुसरे में चले जाते हैं? या शायद इसके विपरीत हो एक दम छोटी-छोटी बातों में दिलचस्पी हो उन्हें? देखो ज़रा! बड़े परदे पर छोटी सी बच्ची अपनी ही आस्तीन पर बटन टांक रही है. चीखता है निरीक्षक और दौड़ें आते है सब लोग. कितना प्यारा जीव और कितना नन्हा-सा धड़कता दिल उसका! सुईं में धागा पिरो रही है कितने ध्यान से, देखो! ख़ुशी से चीख उठता है कोई : बॉस को बुलाओ! उन्हें तो यह अपनी आखों से देखना चाहिए!
बचपन में जब जूता कुछ बड़ा होता था जुराब भर लेते थे उसमें. यादें भी कुछ ऐसी ही होती हैं जूतों में भर लो तो सफ़र आसान कर देती हैं और जब जूता खोलो, घर भर में भर जाती हैं.
अब भी कभी कभी लंबी छुट्टियों में आ जाता हूँ तुम्हारे शहर. हर बार कुछ पल विक्ट्री मैदान पर गुजारता हूँ. हर चेहरे को देखता हूँ इस उम्मीद में कि एक तो तुम्हारा हो. सब कुछ वही तो नहीं पर मैदान तो वही है, शायद अब तुम आस-पास रहती भी नहीं. अतिम बार जब मिले थे सुमी भी साथ थी, और तुम हक-बका गई थी मेरी तस्वीर देख, उसके बैग में. अब तो उस तस्वीर वाला मैं भी कहीं खो गया हूँ. बस उस ही की तलाश में भटक रहा हूँ, भटकता रहा हूँ काफी वक्त से. वक्त निकलता भी जा रहा है, और अटक भी गया है वहीँ. जहाँ भी जाता हूँ, उसके निशान मिलते हैं, वह नहीं मिलता.
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