रेत से ढँक गया है सब, सारा फर्नीचर, सब परदे, सारा आँगन, जैसे उतर आया हो सहरा मेरे घर में. और जहाँ नहीं थे पहले आज खड़े हो गए हैं आईने. मिल गया आखिर तुम्हारा संदेश. घुमा-घुमाकर, उलट-पलटकर, हर तरफ से देख लिया पर पढ़ नहीं पा रहा हूँ अब भी. और घूर रहे हैं ये आईने मुझे, छोड़ नहीं रहे, एक पल को भी, मुझे अकेला.
एक झटके से टूट गई नींद, एक ऐसे दुस्वप्न से, विरले दुस्वप्न से जो चलता रहता है एक नींद से दूसरी नींद तक. बाहर देखा अँधेरा था दूर तक, बस पास की खिड़की से कुछ रोशनी बरस रही थी अगली रेल पर. अँधेरा था दूर तक, कुछ महसूस हुआ- लगा अभी वक़्त लगेगा समझने में, फिर लिखूंगा एक कविता- शायद दो दिन बाद. अँधेरे में बैठे हुए नोट्स बनाए, नोट्स - जो मिटा दिए दो दिन बाद मिटा दिए मिटा दिए पर कुछ बदला नहीं उससे, कुछ भी नहीं. न दुस्वप्न, न मैं.
कल रात भी तुम नहीं आई रात भर इंतज़ार रहा, अब सिर भी दुःख रहा है पर आई नहीं तुम. ------ दिन भर की टैपिंग से थककर रात को तुम्हें पुकारता और तुम आ जाती -- कभी नहीं भी आती तो मैं कुछ और करने लगता. पर जब भी तुम आती थी रात को ही आती थी. ----- दरवाज़ा खुला ही रहता है पर तुम आती ही नहीं अब. सड़ते हुए मांस की, पानी में डूबे हुए, हलकी हलकी गंध भरने लगी है यहाँ अब तो. ----- हाँ, वह भी आई थी, कई दिनों बाद, दूध की हलकी गंध लिए, सिकुड़े हुए मुँह में अब बस एक सुन्हेरा दांत दीखता था, जोकर का खेल देख रोकर लौट गई. ---- पर अब सड़ती लाश से दूध से सफ़ेद घोड़े पंख फड़फड़ाते उड़ चले.