कविता

कल रात भी तुम नहीं आई
रात भर इंतज़ार रहा,
अब सिर भी दुःख रहा है
पर
आई नहीं तुम.

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दिन भर की टैपिंग से थककर
रात को तुम्हें पुकारता
और तुम आ जाती --
कभी नहीं भी आती
तो मैं कुछ और करने लगता.
पर जब भी तुम आती थी
रात को ही आती थी.

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दरवाज़ा खुला ही रहता है
पर तुम आती ही नहीं अब.
सड़ते हुए मांस की,
पानी में डूबे हुए,
हलकी हलकी गंध
भरने लगी है यहाँ अब तो.

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हाँ,
वह भी आई थी,
कई दिनों बाद,
दूध की हलकी गंध लिए,
सिकुड़े हुए मुँह में अब
बस एक सुन्हेरा दांत दीखता था,
जोकर का खेल देख
रोकर लौट गई.

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पर अब सड़ती लाश से
दूध से सफ़ेद घोड़े
पंख फड़फड़ाते उड़ चले.

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