संदेश

जनवरी, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साथ

घड़ी हँस रही है मुझ पर, मैं भी ऑंखें दिखा रहा हूँ उसे, जलती हुई. ---------------------------- हाँ, साथ-साथ हैं हम, तुम और मैं, एक बार फिर जाने कितनवी बार... तुम्हारा दिल मेरे गुर्दे से, तुम्हारा गुर्दा मेरे दिल से जुड़ गया है. हमारी रगों में थोड़ा सर्दी का मौसम अटक गया है. ये हालात हमारे बदलते ही नहीं, फिर भी, हाँ, साथ-साथ हैं हम.

मौत

मौत जब मैं चाहता हूँ, तुम "आती" ही नहीं हो, क्या दर्द से डरती हो? बस उस ही के बारे में सोचती रह जाती हो? बिल्कुल मेरी प्रेमिका जैसी हो!!

ॐ पूर्णाय नमः

तुम सदा खोजती रहती हो, पूर्णता. हर रिश्ते में, घर में, बाहर- धूप में. पर, पूर्णता एक क्षण से ज्यादा कहाँ रहती है? और तुम, फिर दौड़ पड़ती हो, उस ही की तलाश में. और मैं, अपूर्ण, तुम्हारे इंतज़ार में. ----------------------------------- मुझे क्या महसूस होता है यह तुम मुझे बताओगी!! जाओ, जारी रखो अपनी तलाश. मुझे रहने दो अपने साथ. मुझे नहीं रहना सब जगह, मुझे नहीं जानना सब कुछ, मुझे नहीं करना कुछ ख़ास. ----------------------------- मेरा यह क्षण, मेरा ख़ुद का यह क्षण, मेरे फ्रेम का बस मेरा है. तुम रखो अपने पास अपने ईश्वर. दिलाती रहो ख़ुद को विश्वास कोई और होने का. --------------------------------

देखी मूढ़ता इस मन की

तुम मुझ जैसी- आजाद, ख़ुद से प्रेम- सबसे अधिक. और फिर, तुम तुम्हारी पसंद- बदलने लगी, मेरे लिए- मेरी खुशी के लिए. और तुम्हारी खुशी- दब गई कहीं- मेरी खुशी के तले. और मैं, होने देता यह? पर, मेरी आज़ादी? दफना दूँ अपनी खुशी? अब बस! तुम और मैं, दूर-दूर. अब, और क्या?