शुरुआत में कई रास्ते थे मेरे सामने, कई संभावनाएं, इन्हीं में खोई रहती थी. हाँ, नहीं जानती थी मैं- कहाँ जाता कौन सा रास्ता, करना क्या हैं वहाँ. और तुमने, सहायता करने के लिए, मुझे इस कोठी में पहुँचा दिया, अब जानती हूँ मैं- मुझे करना क्या हैं, जानती हूँ मैं- सफलता के प्रतिमान. जानती हूँ मैं- उठ रही हूँ ऊँची, हर वर्ष. पर आज दर्पण में झांकती सोचती हूँ मैं- संभावनाओं और इस प्रतिबिंब में जो भेद है, उसे दूर कर पाऊँगी कभी? सारा जीवन मेरा, बचा हुआ, लग जाएगा इस खाई को भरने में, शायद तब...