चाँद

जिस मकान में मैं रहता हूँ एक कमरा है
उम्मीद लगाए बैठा है एक घर की
भरा हुआ है सामान से जो सजाएंगे उस घर को
पूर्व की ओर सागर है जिसपर सदा सूरज उगता रहता है
पश्चिम में पर्वत हैं जिनके पीछे छुपता है वही सदा
कमरे के बीचों बीच बहुत छोटी है परछाइयाँ.
समय का अहसास होता है इस कोने से उस कोने तक
पर समय कहीं बाहर टहलने गया है, यहाँ नहीं है.

शाम वाले कोने में कभी बैठा
टेपें और रसीदें जांचता हूँ,
पर वह पल नहीं मिलता जिसमें
चाँद को बेच खाया था
बादलों में फैली उसकी दरारों समेत,
बदले में मिला था दूर तक फैला नीला आकाश.

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