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सितंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पिलपिला आतंक - 2

एक फिल्म देखी कल बाकी सब के बीच उस फिल्म में एक मॉडल थी. दुबली-पतली नया आजमाइशी ड्रग लेकर वह बड़ी खाऊ हो जाती है. न जाने क्या-क्या खाने के बाद अपना एक पैर और बाँया हाथ भी खा जाती है फिर अपनी दाहिनी आँख निकालकर चबा जाती है, पूरी आँख नहीं, केवल पुतली ही अपने खून में बैठी, खून में लथपथ, वहीँ सो जाती है. कुछ ऐसा ही था जब तुमने मुझसे फ़ोन पर बात करते हुए अपने हाथ को चूसना-काटना शुरू किया था हिक्की दी थी खुद को. मुझे लगा, अगर पुरुष खुद को चूस सकते तो प्रतिदिन दो बार तो चूसते ही. आँख भर आई इस विचार तक पहुँचते लगा कुछ खुशनुमां याद करूँ, थोडा खुश हों लूँ - यादों के बहाने. तुम्हारी याद आई, और याद आया तुम्हारा डर, या शायद घृणा तेल, वेसिलीन, क्रीम व चॉकलेट से, तुमपर छाया सार्त्र का पिलपिला आतंक पिलपिलाहट में खोती सतहों को पकड़ने की कोशिश ब्रश से पेंट की परतें उनपर सदा के लिए चढ़ाती तुम. सतहों के बीच कहीं कैद रह गई खुशनुमां यादें. मिली नहीं मुझे.

घृणातीत - 2

शवभक्षी कीड़ों की चादर रोज़ ही चढ़ती है किसी पर सड़क के किनारे. कभी कभी तो इतनी मोटी पसलियाँ धँस जाती हैं बोझ तले. रोज़ होता है वही फिर भी एक भीड़ रोज़ लग जाती है तमाशा देखने. कुछ ऐसे भी हैं जो आगे बढ़ जाते है भीड़ को घूरते खाली समय की तलाश में. चलते रहते हैं फ़ोन की घंटियाँ बजती रहती हैं, पर कोई उठाता नहीं उन्हें.

काँच का कनस्तर

अंधेरों में भटकते हुए कभी कभी गिर जाता हूँ उस दरवाज़े से जो खुलता है सिर्फ मुझमें. मुझे घेर लेते है कई पिशाच दिखते नहीं वे, पर सुनाई देते है साफ़ जपते रहते है लगातार बोलो-बोलो-बोलो. पर मैं नहीं बोलता चुपचाप चलता रहता हूँ अपने काँच के कनस्तर में कैद यह धुंधला-सा काँच जो रौशनी तो रोकता है पर शब्दों को नहीं. शब्द खा कर जीते हैं ये नरक के पहरेदार, कुछ शब्द दे दो इन्हें और ले चलेंगे ये भीतर कहीं, और गहरा. मेरी नाक में भरते है वे काली सिगरेट के धुंए में घुली डिटर्जेंट की गंध, उस कमरे की गंध जिसमें चारों ओर टंगे थे आत्म-चित्र. लाल आखों वाले राक्षस सदा जागने वाले एक तलवार से अलग कर देते है विचारों और वस्तुओं के गोलार्द्ध. धमनियां फूलती हैं, फटती हैं, आँख में उतर आती है एक बूँद गुलाबी कर देती है अन्धकार को. गुलाबी, जैसे अभी जन्में शिशु का चहरा उस भ्रूण का जो मेरे दरवाज़े पर खड़ा मिलता है कभी गुलाबी, उस पुलिंदे जैसी जो लाइ थी मुझे दिखाने वह कहा था हमारा है पर मुझे कुछ याद न था, उसने कहा तुम जैसी नाक है, आखें हैं, पर मुझे नहीं दिखीं. उसने कहा कुछ देर में...

पहचान

एक उम्र हुई, जब में बीस का था और था थोड़ा जुनूनी। एक ख्वाब मिला था तब मुझे मेरी आत्मा के खोल में जीता। जब तक वह जिया बाकी सब बेमायने था। काम-काज, पूजा पाठ, सब। आज भी कभी कभी उस ख्वाब से मिलने जाता हूँ और एक कुस्वप्न में खुद से कहता हूँ - पीछे छूट जाएगा यह ख्वाब इसके सारे दर्द, सारा पागलपन यह धड़कती धमनी, आँख में उतरी खून की बूँद - पर वह नहीं सुनता मेरी पहचानता तक नहीं मुझे।

भुरभुरा

ख्वाब में यों उतरती है कविता, झील के हरे पानी में कंकर फेंका हो किसी ने जैसे। भुरभुरे चाँद का प्रतिबिंब नहीं तो एक क्षणिक चमक ही सही।