घृणातीत - 2
शवभक्षी कीड़ों की चादर
रोज़ ही चढ़ती है किसी पर
सड़क के किनारे.
कभी कभी तो इतनी मोटी
पसलियाँ धँस जाती हैं बोझ तले.
रोज़ होता है वही
फिर भी एक भीड़
रोज़ लग जाती है
तमाशा देखने.
कुछ ऐसे भी हैं
जो आगे बढ़ जाते है
भीड़ को घूरते
खाली समय की तलाश में.
चलते रहते हैं
फ़ोन की घंटियाँ बजती रहती हैं,
पर कोई उठाता नहीं उन्हें.
रोज़ ही चढ़ती है किसी पर
सड़क के किनारे.
कभी कभी तो इतनी मोटी
पसलियाँ धँस जाती हैं बोझ तले.
रोज़ होता है वही
फिर भी एक भीड़
रोज़ लग जाती है
तमाशा देखने.
कुछ ऐसे भी हैं
जो आगे बढ़ जाते है
भीड़ को घूरते
खाली समय की तलाश में.
चलते रहते हैं
फ़ोन की घंटियाँ बजती रहती हैं,
पर कोई उठाता नहीं उन्हें.
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