चार आखों वाला कुत्ता

सदियों पहले
भैया कि ही तरह
अग्नि भी रूठ गया था
अपने पिता से.

प्रथम पुत्र को खोजने
अपने सभी पुत्रों को
भेजा था प्रजापति ने,
खुद भी चल पड़े थे
सफ़ेद घोड़े का भेष बना.

वर्षों भटक कर भी
ढूंढ न पाए वे,
थक कर एक झीले से
पानी पीने को झुके.

लाल प्रकाश देख
सफ़ेद कमल के बीच
ठिठुर गए वे.
मुह पास ले गए उसके
तो जल कर लाल हुआ.

बिलकुल वैसा ही घोडा
वर्षभर पहले भेजा था
विश्वविजय करने.
बस तीन दिन का अनुष्ठान
बाकी रह गया है अब.

विश्वविजय – अधिकार सब पर,
एक विश्वास जिसपर
यथार्थ टिका है.
दासी कि गोद में पड़े
एक अधिकार छिना था मुझसे
तबसे ही कोई और
न छिनने दिया मैंने.

२१ तनों से बने २१ खम्बे,
३६ लम्बे हाथ वाली चम्मचें,
४ चार-पहियों वाले रथ,
४ चांदी के मुकुट,
लाल ईटें,
२४२ चाकू
३३३ सुइयां – सोने की और चांदी की और ताम्बे की,
मिट्टी के बर्तन,
और कई सौ जानवर,
सब तैयार थे इस मैदान में
जिसके पूर्व में सरोवर है
जिसमें सब बह जाएगा धीरे-धीरे
और रह जाएगा बस
यह खाली मैदान
घोड़े के टापों से भरा.

अग्निहोत्र से पहले
ब्राह्मण ने कहा
बस, अब कुछ कहना मत,
बोली ही तो त्याग है.

दक्षिण से
चार पंक्तियों में
एक जुलूस आया.
हर पंक्ति के आगे
चांदी का मुकुट पहने
एक रानी थी – महिषी, ववता, परिव्र्कता, पलगली.

अग्निहोत्र के बाद
मैं लेटा था
महिषी की जांघों के बीच, पूरी रात
अपने भीतर तपस भरते
वर्षभर के लिए.
चार सौ तीन और स्त्रियाँ
चारों ओर फैली थीं.
उस पहली रात
रातभर जगा था
प्रिय से लगा हुआ.

सूरज की पहली किरण
और चल पड़ा हमारा घोडा
अपनी मर्ज़ी का मालिक
बिलकुल सिद्धार्थ की तरह.

भटकते भटकते एक दिन
ठीक एक वर्ष बाद
एक जंगल से निकल
वह पहुंचा यहीं, इसी जगह.

अगर तुम मिलते उससे
वह पूछता तुमसे
क्या है अश्वमेध?
और तुम्हारी हिचकिचाहट पर
तुम्हारा सब कुछ लूट लेता.

और मैं
हर दस दिन में
फिर से शुरू होती कहानियों में
पूरा वर्ष जिया.

और वह लौट आया
अपने आप ही
अपनी कुटी में,
सात दिन वह वहीँ अंदर रहा.

असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय.

आखिर वह समय आ ही गया
अब सारा हलाहल घुल जाएगा
लाल अमृत में.

जंगली घोड़े तो बच जाएंगे
जंगल में लौट जाएंगे
उन्हें कुछ और आता नहीं
पर हमारा घोड़े तो हमें
वापस ले जाएगा
उसी पवित्र अग्नि के पास.
यह ही तो है
वह विशाल पक्षी भी.

मैंने देखा उसे
मैं उसमें खो गया
बस वह बचा
बिजली सा सफ़ेद
जलती चोच लिए.
हिन् हिन् हिन् हसता.
बावला सा.

मैं समा गया उसमें
महिषी भी आई
दोनों लिपट गए
एक चादर के भीतर
हिन् हिन् हिन् हसता
सर पटकता
सब सुनता रहा
पर कुछ न कहा महिषी ने.
चुप रही वह
आखिर बोली ही तो त्याग है.

मैं खड़ा था
घुटनों तक डूबा
लहरें थी, हमेशा सी.
वह था, लहरों सा,
हम गुंथे थे
काले सर्पों से
उसने उठाया एक चाकू
उसने काट ली अपनी गर्दन – मेरी गर्दन.
वह तदपा, पानी से निकली मछली सा
खामोश चीख सा.
खून पकेगा मिट्टी के बर्तन में -
अभी तो मेरी मुट्ठी से
रेत सा फिसला है बस.

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काल के गर्भ से निकली, मन की तहों में सदियों सुरक्षित, जीवन की आश्रयहीन प्रवाहित कल्पनायें, स्वप्न में थिरकती विगत स्मृतियाँ, कुछ ऐसा ही निष्कर्ष ले आती हैं। अद्भुत संवाद।

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