सुबह सुबह एक जाना-पहचाना गीत सुन खिड़की से बाहर देखा, देखा एक चिड़िया बैठी है ऐन्टेना पर, अनमनी-सी, गुनगुना तो रही थी - पर कल वाला गीत. उसे देख लगा अब और नए गीत न गाएगी वह. सुबह सुबह खिड़की से बाहर देखा, देखा अपने अंतिम छोर पर पहुँच गई थी प्रकृति. अब नया कुछ बचा नहीं था पास उसके. अमलतास अमलतास तो उग आया था मेरी खिड़की तक अब भी पीले थे फूल उसके, अब भी कीड़ों को भाता शायद, पर मैंने देखा अब बंद कर दिया था उसने पेड़ना. हिचकिचाता बाहर निकला मैं आस लगाए गलत पाने की खुदको. घुटनों पर बैठ कान नीचे लगाया, सुन सकता था मैं उनकी टाप. आ रही थी उनकी फौज, धकेलती, रौंदती, मार्च करती. जुलूस था काले मुखौटों का, सूअर-जैसे मुखौटों का. आज यहाँ पहुंचेंगे वे, आज जीत जाएँगे वे, आज सुरों की सेना का अंत होगा और फिर सब मंगलमय होगा. प्रकृति अटक जाएगी अपने अंतिम छोर पर और सब फेंक देंगे अपने उपहार उपहार मौत का और 'फ्री-विल' का. अमर हो, सब इंतज़ार करेंगे बदलने का, और कालजयी कुछ भी कभी नहीं रचेगा.